सोमवार, 26 फ़रवरी 2007

अभीष्ट के दर्शन

कैसे वंचित रख सकता है
कोई अपने आप को
इस वरदान से!
क्या उसके धमनियों में
रक्त का संचार नहीं!

अंधेरे में था मैं
सुनी-सुनायी बातों पर
भरोसा करता रहा।
बस एक शीतल स्पर्श ने
पूरा अंतस झूठला दिया
अब तक झूठे मंदिरों में
जाता रहा,
खोजता रहा था
अपना अभीष्ट,

पर वह मृग-मरीचिका थी।
मुर्दों की आँखों में
अपने कष्टों की
अभिव्यक्ति देखना चाह रहा था
शवों के हृदय में
मधुर-मिलन की
तड़प देखना चाह रहा था।

पर कितना सौभाग्यशाली था मैं!

जीवंत देवी के दर्शन हो गये।

जिस मार्ग पर दौड़ रहा था
उसमें था मात्र हाहाकार
चहुँओर फैला था
अतृप्त तृष्णा का विस्तार।

परन्तु अचानक
अमृत के दर्शन हो गये
रोम-रोम आवेगित हो उठा।

अब मैं
श्रद्धालु से पुजारी बनना चाहता हूँ,
अमर-मूर्ति का वंदन करना चाहता हूँ।

उसके स्पर्श की सुगंध
अभी तक साँसों में अध्यारोपित है,
विज्ञापन-चित्र की भाँति
सुयोग-चिह्न नैनों में समाहित है।

होश आ गया है मुझे
समझ गया हूँ मैं
स्त्री-सुख ही अभीष्ट सुख है।


लेखन-तिथि- २४ अप्रैल २००६ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६३ वैशाख कृष्ण पक्ष की एकादशी।
यह कविता वेबज़ीन कृत्या के फरवरी २००७ अंक में यहाँ प्रकाशित है।

सोमवार, 19 फ़रवरी 2007

वक़्त लगेगा

जो संवेदनायें मुझसे उठ कर गयी हैं
उन्हें तुझसे परावर्तित होकर
लौटने में वक़्त लगेगा।

जो महक अपने मन की भेजी है
उसे तुम्हारी जिस्मानी खुश्बूँ को
उड़ा लाने में वक़्त लगेगा।

जिस मोरनी की चाल को
जंगल से चुराकर भेजी है
उसे तुम्हारी मस्तानी चाल से
मात खाने में वक़्त लगेगा।

जिस आइने को गोरी से माँगकर भेजा है
उसे तुम्हारा
रूप चुराने में वक़्त लगेगा।

ममता जो कुछ बोलती ही नहीं
मौन में विश्वास है जिसका
तुमसे मिलना उसका और
चिल्लाने में वक़्त लगेगा।

लेखन-तिथि- ३० दिसम्बर २००५ तद्‌नुसार विक्रम-संवत् २०६२ पौष कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी।

मेरी यह रचना कविताओं की पत्रिका 'कृत्या' पर यहाँ प्रकाशित है।

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2007

कितना मुश्किल होता है

कितना मुश्किल होता है
लोगों को यह बताना
कि मैं कमजोर हूँ।
सामने जो पहाड़ है ना
उनकी तरह
मैं नहीं
लाँघ सकता।
सबने बराबर झूठ बोले हैं।।

कितना मुश्किल होता है
पिताजी को यह समझाना
कि बाबूजी
पढ़ते-पढ़ते अब
जी ऊब गया है।
सब ढकोसले हैं।
बड़ी मुश्किल से तो मुझे
यह बात समझ में आयी है
मगर आप नहीं समझ पावोगे।।

कितना मुश्किल होता है
सुब्बो को यह समझाना
कि पगली,
जिन रेल की पटरियों पर
कभी बिना गिरे
सम्भल सम्भल कर चलना
मुझे अच्छा लगता था।
उन्हीं पर चढ़कर
मुझे दिल्ली जाना पड़ता है।
इन्हीं पटरियों ने बहुतों का घर सूना किया है।।

कितना मुश्किल होता है
भगवान को यह समझाना
कि यह दुनिया
जैसी तुमने बनायी थी
वैसी नहीं बची है।
अब लोगों ने नियम बदल लिये हैं।
अब तुम मत आना
नहीं तो तुम्हारी
पोल खुल जायेगी।
विश्वास नहीं है ना
तो मजबूर का अवतार ले ले
फिर रावण क्या
तू तो लालू से नहीं मिल पायेगा।

यह कविता वेबज़ीन कृत्या के फरवरी अंक में भी प्रकाशित है।

लेखन-तिथि- ०२ दिसम्बर २००५ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६२ मार्गशीर्ष शुक्ल प्रथमा।