सोमवार, 28 मई 2007

महान बनो (हिंगलिश कविता)

महान होने की है यह पहली कंडिशन
विचारों में न हो तनिक फ़्लक्चुएशन।

प्रैक्टिकल बनकर न पहुँचोगे शीर्ष पर
हमेशा नज़रों के सामने रखो, अपना एम्बिशन।

टीवी चैनलों से सदैव सदाचार लेते रहो
बुरी आदतों को न दो मन में आने की परमिशन।

ये नहीं कि केवल मित्रों की बराबरी करो
रोज़ करते रहो तुम ख़ुद से भी कॉम्पटिशन।

जब भी तुम्हारे ऊपर ज़ुर्म या ज़्यादती हो
न भूलो कोर्ट में जाकर करना एक पटिशन।

भाई-भाई में रही है सदा ही झगड़ने की प्रथा
छोटी सी बात को लेकर न करो घर का पार्टिशन।

केवल अपना राग अलापना, अच्छे लक्षण नहीं
दो मौका सबको बोलने का, न समझो उन्हें अपोज़िशन।

शब्दार्थ-
कंडिशन-
शर्त, फ़्लक्चुएशन- उतार-चढ़ाव, प्रैक्टिकल- व्यवहारिक, एम्बिशन- महात्वकांक्षा, परमिशन- अनुमति, कॉम्पटिशन- प्रतिस्पर्धा, पटिशन- याचिका, पार्टिशन- विभाजन, अपोज़िशन- विरोधी।

लेखन-तिथि- २२ नवम्बर २००६ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६३ मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष द्वितीया।

शनिवार, 19 मई 2007

हमारा इंडिया

हम तो आज भी अंग्रेज़ों के अधीन हैं
क्योंकि भारत 'इंडिया' में विलीन है।

भारतवर्षोंन्नति हो भी तो कैसे? जब
हर कोई पलायन को तल्लीन है।

कैसे जमा हो बिजली, पानी, सड़क का खर्च?
जबकि हम टैक्स भरने के प्रति उदासीन हैं।

कैसे बनाओगे दिल्ली को लंदन जैसा?
जब यहाँ आधी बस्तियाँ मलीन हैं।

हर दुकानदार है करा रहा यहाँ बालमज़दूरी
यह जनाते हुए, अपराध यह संगीन है।

एड्स पर पूरा अंकुश आख़िर लगे भी कैसे?
जबकि हज़ार पर नौ सौ तैंतीस ख़वातीन हैं।

क्यों बढ़ाते जा रहे हो संतानों की फ़ौज
न खाने को अन्न है, न रहने को ज़मीन है।

शब्दार्थ०-
भारतवर्षोंन्नति- भारत देश की उन्नति, ख़वातीन- नारी, महिला, स्त्री, लड़की

लेखन-तिथि- २१ नवम्बर २००६ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६३ मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा।

गुरुवार, 3 मई 2007

क्या डीटीसी का घाटा कम होगा?

डीटीसी पाँच सालों से घाटा झेल रही है
केवल 'पास' वाले यात्रियों को ठेल रही है।

जब इनके कंडक्टर
प्राइवेट वालों से घूस लेते हैं
हाथ देने पर भी
स्टैंड बन बिना रुके, फूट लेते हैं।

प्राइवेट बसें ठूँस-ठूँस के भरी होती हैं
डीटीसी बसें मुँह बाएँ खड़ी होती हैं।

इनमें जबकि केवल 'दो' वाले चढ़ते हैं
'दो' में चढ़कर 'पाँच' की दूरी बढ़ते हैं।

बस के गंतव्य तक पहुँचने की, सरकार गारंटी नहीं लेती
चलती बस से उतरते, आपकी सलामती की वारंटी नहीं लेती।

नए यात्री को ये ठीक जगह उतारते नहीं
कहाँ-कहाँ जाएँगे जब ये पुकारते नहीं।

क्यों महँगाई के डंडे में
तेल लगाते जा रहे हो?
अपनी करनी का फल ख़ुद भी चखो,
क्यों भारत की नैया
डुबाते जा रहे हो?

किराया बढ़ाकर सरकार
अपनी कमज़ोरी छुपाना चाहती है।
या यूँ कहें कि
प्राइवेट का मुनाफ़ा बढ़ाना चाहती है।

पानी सर के पार हो जाए
अब इसी का इंतज़ार है
मिलकर सत्ता बदल दो
समय की यही दरक़ार है।


लेखन-तिथि- ३ मई २००७ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६४ प्रथम ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष प्रतिपदा।