मंगलवार, 5 दिसंबर 2006

शांतप्रहरी

(हालाँकि मैं तुकान्त कविता नहीं लिख पाता, फिर भी एक बार कुछ तुकान्त कविताएँ लिखी थी। इस श्रेणी में आनेवाली दूसरी कविता आपकी नज़र कर रहा हूँ। पहली कुछ कारणों से अभी नहीं प्रकाशित कर रहा हूँ। यह कविता मेरे प्रारम्भिक दौर की है, इस लिए वृहद-शब्दकोश के अभाव के कारण तथाकथित कुछ गैरसम्मानित शब्दों का भी समावेश है। सुदंर भाषा प्रेमी मुझे माफ करेंगे!)



हे प्राणेश्वरी, हे कामेश्वरी
मेरे ह्रदय की तुम रागेश्वरी।
इस कांतिमय मन-मंदिर का
मैं शांतप्रहरी, मैं शांतप्रहरी।।

ये किन कर्मों का फल है कि मैंने तुमको पाया है।
ये बहु-प्रतीक्षित सा समय, मेरे जीवन में आया है।।
ये मूरत तेरी, ये सूरत तेरी, कितनी सुन्दर काया है।
चेहरे से नज़रे हटा न सका, ये तेरी कैसी माया है।।

ये गाल तेरी, ये चाल तेरी
नथूनों में अज़ब सी लाली है।
कमर कहूँ या तिनका मैं?
जुल्फ़ घटा से काली है।।

यह पिंडलियों की स्निग्धता
मुझे मतवाला कर देती है।
यह नितम्बों का भारीपन
तन में मस्ती भर देती है।।

गिरि के उतुंग शिखर जैसे
वक्षों की छटा निराली है।
उभारों के बीच का अंतराल
लगता है कुछ खाली-खाली है।।

तेरे रूप-वर्णन में, शब्दों की चिंता होती है।
कुछ कैसे कहूँ मैं? ज़ुबाँ लब्ज़ का साथ खोती है।।

डर लगता है कि इज़हार-ए-ज़ुबाँ न कर पाया।
मेरे रोम-रोम से गर प्रेम-सुधा न झर पाया।।

तो फिर क्या होगा?

ये सोच मन काँप जाता है।
फिर कुछ समझ न आता है।।

दया करो हे हृदयेश्वरी!
अपने गुलाम पर दया करो।
कुछ तो कसमों की हया करो।।

हे मेरी गुणेश्वरी!
इस कांतिमय मन-मंदिर का
मैं शांतप्रहरी, मैं शांतप्रहरी।।

लेखन-तिथि- ३ जनवरी २००३ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०५९ पौष शुक्ल प्रतिपदा।

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

शैलेश जी , कविताओं के लिए तुक या अतुक का महत्‍व नही है बल्‍कि
भाव का महत्‍व होता है । वैसे भी आपकी कविताए बहुत अच्‍छी है।
बधाईयाँ............कृष्‍णशँकर सोनाने

गिरिराज जोशी ने कहा…

सुन्दर विषय और उतनी ही सुन्दर अभिव्यक्ति...

ऐसा काव्यरस परोसने के लिए धन्यवाद!