बुधवार, 7 मार्च 2007

गुठलियाँ हमेशा फेंकी नहीं जातीं

जब भी हँसती है वो
हँसने जैसा।
पता नहीं कैसे मुझको
पता चला जाता है!

बहुत छुपाती है वो अपनी मुस्कराहट
नकली गुस्सा भी लाती है
चेपर पर।
पर चहकना नहीं भूल पाती है
पक्षियों की तरह।
कई बार आइने पर भी
नाराज़ हो जाती है।
बेचारा वो क्या करे!

कभी-कभी जब मंदिर जाती है
तो दीया की रोशनी में
उसे अपनी परछाईं देखना
बहुत अच्छा लगता है।
क्यों न लगे!
परछाइयाँ इच्छा के अनुरूप
छोटी-बड़ी जो होती रहती हैं।

पिछली बार
जब गाँव में आम पके थे
तो पक्षियों ने भी
उसका इठलाना चूसा था।
पहली बार उन्हें लगा कि
गुठलियाँ हमेशा फेंकी नहीं जातीं।

शहर आते वक़्त
मुझसे यही कहती थी-
तुम वहाँ क्यों जाते हो?
क्या यहाँ मैं अच्छी नहीं लगती?
मैं उसको आज तक
नहीं समझा पाया
हर चीज़ की कीमत होती है।
ज़रूरी नहीं हर चीज़
बाज़ार में बिके।
बता भी कैसे सकता था?
ज़रूरी तो नहीं
कि सबकुछ बताया जाय!


लेखन-तिथि- १२ सितम्बर २००५ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६२ भाद्रपद शुक्ल नवमी।

1 टिप्पणी:

divya ने कहा…

ye kavita bahut hi masoom aur pavitra lagi mujhe.....