कितना मुश्किल होता है
कितना मुश्किल होता है
लोगों को यह बताना
कि मैं कमजोर हूँ।
सामने जो पहाड़ है ना
उनकी तरह
मैं नहीं
लाँघ सकता।
सबने बराबर झूठ बोले हैं।।
कितना मुश्किल होता है
पिताजी को यह समझाना
कि बाबूजी
पढ़ते-पढ़ते अब
जी ऊब गया है।
सब ढकोसले हैं।
बड़ी मुश्किल से तो मुझे
यह बात समझ में आयी है
मगर आप नहीं समझ पावोगे।।
कितना मुश्किल होता है
सुब्बो को यह समझाना
कि पगली,
जिन रेल की पटरियों पर
कभी बिना गिरे
सम्भल सम्भल कर चलना
मुझे अच्छा लगता था।
उन्हीं पर चढ़कर
मुझे दिल्ली जाना पड़ता है।
इन्हीं पटरियों ने बहुतों का घर सूना किया है।।
कितना मुश्किल होता है
भगवान को यह समझाना
कि यह दुनिया
जैसी तुमने बनायी थी
वैसी नहीं बची है।
अब लोगों ने नियम बदल लिये हैं।
अब तुम मत आना
नहीं तो तुम्हारी
पोल खुल जायेगी।
विश्वास नहीं है ना
तो मजबूर का अवतार ले ले
फिर रावण क्या
तू तो लालू से नहीं मिल पायेगा।
यह कविता वेबज़ीन कृत्या के फरवरी अंक में भी प्रकाशित है।
लेखन-तिथि- ०२ दिसम्बर २००५ तद्नुसार विक्रम संवत् २०६२ मार्गशीर्ष शुक्ल प्रथमा।
10 टिप्पणियां:
कितना मुश्किल होता है
लोगों को यह बताना
कि मैं कमजोर हूँ।
इन्हीं पटरियों ने बहुतों का घर सूना किया है।।
कि यह दुनिया
जैसी तुमने बनायी थी
वैसी नहीं बची है।
तो मजबूर का अवतार ले ले
फिर रावण क्या
तू तो लालू से नहीं मिल पायेगा।
mujhe yeh lines bahut aache lage.....bas isi tarah apni kavitaayen humpar barsaate rahiye...
कितना मुश्किल होता है
भगवान को यह समझाना
यह दुनिया वैसी नहीं बची
जैसे तुमने बनाई थी
ये पँक्तियाँ अच्छी लगी
एक बात कहें
कितना मुश्किल होता है जिन्दगी
को यह समझाना
कि तेरे सितम सह कर भी
जीती हैं तेरे लिये ही
u are an ultimate poet..very touchy poem..kavitaa padhne ke baad mujhe do cup cofee kee avashyakataa hue..
shilash sach kaha hai aapne ki bhaut mushkil hai apni koi kamzori kisi aur ko batana yahan to sabhi ishi apne dard ko chhipakar hansna chate hai
aapki ye koshish ye aapki ye soch bhaut achhi lagi sach se milati hui lagi
shilash sach kaha hai aapne ki bhaut mushkil hai apni koi kamzori kisi aur ko batana yahan to sabhi ishi apne dard ko chhipakar hansna chate hai
aapki ye koshish ye aapki ye soch bhaut achhi lagi sach se milati hui lagi
कितना मुश्किल है अपने मनोविकारों को स्वीकार करना कहीं लोग इसे अन्यथा न ले लें…।
अपने मन की अभिव्यक्ति जब खुद को हमेशा धोखा दे देती है…हम जब यही नहीं समझ पाते कि वास्तव में हम क्या सोचते हैं तो दुनियाँ को अपनी मनोव्यथा से अवगत कराना कितना मुश्किल है…
लिखा तो बहुत अच्छा है…मैं मात्र अपनी बात कह रहा था…बधाई स्वीकारे!!
कविता के भाव बहुत अच्छे हैं .. सचमुच मुश्किल होता है सत्य को स्वीकारना.. और अपनी सोच को दूसरॊं तक पहूंचाना.. पर इस मजबूरी और कमजोरी क ज़िम्मेदार कौन ? और कौन निकालेगा हमें बाहर .. हम स्वयम ही शायद।
सहज-सरल भाव लिये आपकी यह कविता अच्छी लगी....बधाई
जिन रेल की पटरियों पर
कभी बिना गिरे
सम्भल सम्भल कर चलना
मुझे अच्छा लगता था।
उन्हीं पर चढ़कर
मुझे दिल्ली जाना पड़ता है।
इन्हीं पटरियों ने बहुतों का घर सूना किया है।।
Afterall ise hi jindagi kahate hai na...
Kamjori kavita mein batane ka sahas to kiya hai na aapne, yeh bhi kuch kam nahi.
bhav jo aapne mehsoos kiye unhe shabd me daal kar prastut kiya.....
kitne log jo ghar chodh kar bahar jaddojehad kar apni jivika chala rahe hai...un tamam logo ki yaad aa gayi....
कितना मुश्किल होता है
लोगों को यह बताना
कि मैं कमजोर हूँ।
behatreen pankhtiyan......gagar me sagaeer
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