सोमवार, 9 अप्रैल 2007

कुछ बातें नयी-पुरानी

जब हम उदास होते हैं
अपने मन के अधिक पास होते हैं।


ज़रूरी नहीं ग़म में आँखें गीली हों
सबके अपने-अपने परिमाप होते हैं।


जिगर के टुकड़े को कभी नेता न बनाना
समाज के लिए ये अभिशाप होते हैं।


गर्दन दबते ही चाटते हैं तलवे
कहाँ अब ये महाराणा प्रताप होते हैं।


अब तो बागो में परिंदे भी नहीं आते
कहाँ अब लोगों को अवकाश होते हैं।


बेवफ़ाई तो हसीनों की फ़ितरत है
इश्क़ करने वाले हवा में कपास होते हैं।


कविताओं को कभी दिल पे मत लेना
ये तो कवि के दिल बहलाने के प्रयास होते हैं।


मौसम की छेड़ख़ानियों को बारिश न समझो
ये तो लहर और वर्षा के मिलाप होते हैं।


लेखन-तिथि- २६ मई २००६ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६३ ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी।

4 टिप्‍पणियां:

सुनीता शानू ने कहा…

वाह शैलेश भाई अच्छी व्यग्यं रचना है क्या कटाक्ष किया है आपने ना आज नेता है ना ही वो प्यार है,...कुछ भी तो एसा नही रहा जो पहले था मगर हाँ कवि की कलम वही है कल भी उसका हथियार थी आज भी है,...सुन्दर रचना के लिये बधाई
सुनीता(शानू)

Reetesh Gupta ने कहा…

ज़रूरी नहीं ग़म में आँखें गीली हों
सबके अपने-अपने परिमाप होते हैं।

सुंदर रचना के लिये बधाई

बेनामी ने कहा…

cool one !!

Sandeep ने कहा…

shabdo kaa bahut hi lubhavana prayog hai is rachnaa mein...badi hi saralata se aaj ke haalat ko darshaya hai aapne. Is koshis ke liye aap badhai ke patr hai