मंगलवार, 24 अप्रैल 2007

.......और कुछ नहीं

ज़िंदगी बस मौत का इंतज़ार है, और कुछ नहीं।
हर शख़्स हुस्न का बीमार है, और कुछ नहीं।।

तुमको सोचते-सोचते रात बूढ़ी हो गई,
आँखों को सुबह का इंतज़ार है, और कुछ नहीं।।

अब तो जंगलों में भी सुकूँ नहीं मिलता,
हर चीज़ पैसों में गिरफ़्तार है, और कुछ नहीं।।

यह न सोचो, कहाँ से आती हैं दिल्ली में इतनी कारें,
जिनकी हैं, उनकी एक दिन की पगार है, और कुछ नहीं।।

नेताओं की दुवा-सलामी से कभी खुश मत होना,
चुनाव-पूर्व के ये व्यवहार हैं, और कुछ नहीं।।

हमने अपनी जी ली, जितना खुद के हिस्से में था,
बाकी की साँसें दोस्तों की उधार हैं, और कुछ नहीं।।

तेरे न फ़ोन करने पर, जब भी हम शिकायत करें,
इसे गिला मत समझना, ये तो प्यार है, और कुछ नहीं।।


लेखन-तिथि- १९ नवम्बर २००६ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६३ मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी।

मंगलवार, 17 अप्रैल 2007

राष्ट्रीय जल आयोग और हमारा नल

राष्ट्रीय जल आयोग-कार्यालय
के बाहर लगा नल
हमेशा
मेरे आते-जाते वक़्त
मुँह चिढ़ाता रहता है।

मैंने उसे कभी सूखा नहीं देखा
हमेशा
लार टपकाता रहता है
जैसे दिल्ली की
रमणियों का स्पर्श चाहता हो।

सिद्ध करता रहता है
कि भारत में
पानी की कमी नहीं है।

आने-जाने वालों
को तो उसके सुख-दुःख से
मतलब भी नहीं है।

रोज़ सुबह-सुबह
जब शौच भगवान
का अवतरण होता है
उस नल की याद आती है

एक वो नल
और यह हमारा!

काश!
कोई जल आयोगवालों को समझा पाता।


लेखन-तिथि- २३ जुलाई, २००६


भूमिका- जब तक सोनिया विहार का वाटर-प्लॉन्ट नहीं शुरू हुआ था, तब तक साउथ दिल्ली में पानी की बहुत किल्लत थी। उसी समय की आपबीती है। यद्यपि अब पानी की कमी का अंदाज़ा भी नहीं लग पाता है, मगर देश-दुनिया में बहुत सी ज़गहों पर इस तरह की परेशानी है।

सोमवार, 16 अप्रैल 2007

कहानी दो बूँद की (मुसलमान की आत्मकथा)

जानते हो,
क्यों नहीं पड़ते
मेरे दोनों पाँव
ज़मीन पर?

क्यों दे रखी है
सरकार
मुझे
यह बैसाखी-रिक्शा?

क्यों नहीं घुमा सकता
बच्चों को
कँधा-बिठाकर?

क्यों नहीं उठा सकता
अपने महबूब का
यह हल्क़ा बदन?

क्यों नहीं दे पाया
कँधा
अब्बा की लाश को?

क्यों नहीं मिल पाया
मुझे वो सम्मान
जिसका हक़दार
हो सकता था
मैं भी?

क्योंकि अब्बा
भेज देते थे
मुझे
ख़ाला के घर
जब आते थे
पोलियो ड्राप वाले।

क्योंकि नहीं चाहते थे वे
मैं नामर्द बनूँ।

नहीं चाहते थे
रुके उनका वंश।

चाहते थे
इतने बच्चे हों
कि जब इस्लाम हो ख़तरे में
तो कर सकें वो ज़ेहाद
फोड़ सकें कुछ बम
जला सकें कुछ बस्तियाँ
ऊँचा करें उनका नाम।

अब्बा!
काश!
मैं दो बूँद पीकर
नामर्द बन गया होता।


लेखन-तिथि- १८ फरवरी २००७ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६३ फाल्गुन प्रतिपदा।


भूमिका- इसी वर्ष के जनवरी माह में अखबारों में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी, जिसके अनुसार भारत में अभी भी ६०० से अधिक मामले पोलियो से शिकार लोगों के पाये गये हैं जो संख्यात्मक रूप से विश्व में दूसरे स्थान पर है, और विशेष बात यह है कि ५९० के आसपास उत्तर प्रदेश से हैं और वो भी ९९% मुस्लिमों में। उसी बीच ऑल इंडिया रेडियो वाले अपने समाचार के दौरान मुस्लिमों के हुई बातचीत भी प्रसारित किये थे, तब पता चला कि कैसे घर-घर जाकर जबरदस्ती पोलियो ड्राप पिलाने के बावज़ूद मामले आ रहे हैं, वे लोग अपने बच्चों को अपने रिश्तेदारों के यहाँ भेज देते हैं, या गाँव से बाहर कहीं छिपा देते हैं।

सोमवार, 9 अप्रैल 2007

कुछ बातें नयी-पुरानी

जब हम उदास होते हैं
अपने मन के अधिक पास होते हैं।


ज़रूरी नहीं ग़म में आँखें गीली हों
सबके अपने-अपने परिमाप होते हैं।


जिगर के टुकड़े को कभी नेता न बनाना
समाज के लिए ये अभिशाप होते हैं।


गर्दन दबते ही चाटते हैं तलवे
कहाँ अब ये महाराणा प्रताप होते हैं।


अब तो बागो में परिंदे भी नहीं आते
कहाँ अब लोगों को अवकाश होते हैं।


बेवफ़ाई तो हसीनों की फ़ितरत है
इश्क़ करने वाले हवा में कपास होते हैं।


कविताओं को कभी दिल पे मत लेना
ये तो कवि के दिल बहलाने के प्रयास होते हैं।


मौसम की छेड़ख़ानियों को बारिश न समझो
ये तो लहर और वर्षा के मिलाप होते हैं।


लेखन-तिथि- २६ मई २००६ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६३ ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी।

मंगलवार, 3 अप्रैल 2007

नयी तकनीक

जब कॉलेज़ में था तो मोबाइल हमेशा सरल मोबाइल संदेशों से भरा होता था, उसमें चलते-फिरते शेर होते थे। मैंने सोचा चलो इसी तरह का कुछ मैं भी लिखूँ। देखिए क्या लिखा था।


वे जो करते हैं मिसकॉल और कहते हैं कि हमें याद कर रहे थे।
कोई बताये उनसे हम बैलेंस न होने की फ़रियाद कर रहे थे।।

वहीं कुशल-क्षेम रोज़ाना जानना और बताना
रूठने-मनाने से ज़िन्दगी आबाद कर रहे थे।।

वो जो अकेले थे, पूछते थे लम्बी बातों का सबब
कैसे बतायें कि अपनी चुप्पी का क्या-क्या अनुवाद कर रहे थे।।

हम तो खुश थे उनकी बातों भरी दुनिया में
हमें क्या कि अलकायदा वाले कहाँ-कहाँ फ़साद कर रहे थे।।

पहले कहाँ होती थी रोज़ उनके बातों की झंकार
हम तो रह-रह कर नयी तकनीक का धन्यवाद कर रहे थे।।


लेखन-तिथि- २० मई २००६ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६३ ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी।

सोमवार, 26 मार्च 2007

दुनिया की चाल

ऐ दोस्त ! तुम्हें किस बात का मलाल है?
झूठी बातें, झूठे इरादे, ये तो दुनिया की चाल है।

आलोचनाओं की सूई किसे चुभोते हो?
ये तो नेता हैं, गधों सी इनकी खाल है।

माँगना ही है चंदा, तो लड़के के बाप से पूछो,
हमारी चार कन्या हैं, हम तो कंगाल हैं।

नौकरी पानी है, तो कम्प्यूटर सीखना,
उच्च-शिक्षा में रोज़गारों की हड़ताल है।

गोरा-काला ये तो नैनों का भ्रम है,
इस आवरण के नीचे तो हर कोई कंकाल है।

हर समस्या का समाधान बुजुर्गों के पास है
तुम्हें मालूम नहीं "शैलेश" के घने-काले बाल हैं।


लेखन-तिथि- ०६ अप्रैल २००६ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६३ चैत शुक्ल पक्ष की अष्टमी।

सोमवार, 19 मार्च 2007

जब पहली बार मैंने ग़ज़ल लिखी

जैसा कि आपलोग अब तक मुझे पढ़ते आये हैं, जिससे ऐसा प्रतीत होता होगा कि मैंने मात्र अतुकान्त कविताएँ ही लिखी है। मैं अपने हॉस्टेल में भी इस कारण दोस्तों की आलोचनाएँ सुनता रहा। फिर पिछले वर्ष प्रथम बार मैंने कुछ तुकान्त लिखने का प्रयास किया। अब मालूम नहीं कि इसने ग़ज़ल का रूप लिया है या किसी और छन्द का? आपलोग ही तय करें, और मार्गदर्शन दें।


आँखें पथराई सी


जो तू आई कल शाम, मेरे आशियाने में,
मैंने अब तक रात को सुबह होने न दिया।

तेल के दीये तो कब के बुझ चुके होते
मगर खून-ए-जिगर ने उन्हें बुझने न दिया।

हुस्न वालों ने लगा रखी है इक आग बेवफ़ाई की
झूलसा तो हूँ मगर वफ़ा-ए-यार को जलने न दिया।

इन राहों ने निगले हैं कई रहगुजर
बना लिया हूँ घर इस पहाड़ी पर
किसी खूनी रास्ते को घर से गुजरने न दिया।

इन किताबों ने ज़ुदा किये हैं, हमको अपनों से
जब भी दादा ने उठाई कलम, कुछ लिखने न दिया।

रोज़ करते हैं फ़ोन पर वादा, वो आयेंगे हमारी मय्यत पर
पथरा गई हैं आँखें, मगर 'शैलेश" उन्हें झपकने न दिया।


लेखन-तिथि- २३ फ़रवरी २००६ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६२ फाल्गुन कृष्ण पक्ष की दशमी।

सोमवार, 12 मार्च 2007

भावना करें सवाल तो हम क्या जबाब दें

जब से टैगिंग का यह ड्रामा शुरू हुआ, तो मैं भी इसकी प्रतीक्षा में था कि कोई न कोई मुझे भी टैग करेगा। बड़े नाम वाले चिट्ठाकारों की उत्तर-पुस्तिकाओं में अपना नाम ढूंढता रहा मगर वहाँ उन्हें टैग किया जा रहा था जो उनके चिट्ठों पर सामान्यतया टिप्पणियाँ करते हैं। मुझे लगा कि ज़रूर टैग हो रहे चिट्ठाकारों के चिट्ठों में पोस्टीक-विविधता होती होगी, शायद इसीलिए मात्र कविता-लेखन से जुड़े चिट्ठाकारों को टैग न किया जा रहा हो।

यद्यपि हिन्दी-चिट्ठा पोर्टल नारद पर तो १ वर्ष से भी अधिक समय से आ रहा हूँ, मगर समयाभाव के कारण कम ही लोगों का चिट्ठा खोलने का अवसर मिल पाया था। इधर एक-दो महीने से, जब से घर पर नेट की सुविधा हो गई है, सबके चिट्ठों पर नज़र रहती है। एक ख़ास बात जो मैंने गौर की है कि अधिकतर चर्चित चिट्ठाकारों के चिट्ठों के केन्द्र में चर्चित चिट्ठाकार ही होते हैं। फलाँ भाई ने यह कहा फलाँ बहना यह कह रही थीं, फलाँ भाई यह करने वाले हैं, फलाँ भाई से फलाँ भाई का विवाद॰॰॰॰॰॰आदि। हालाँकि इसी फलाँबाज़ी का एक साकारात्मक परिणाम भी टैगिंग के रूप में देखने को मिला और बहुतेरे चिट्ठाकारों की डायरियों के पन्नों की धूल हट गई।

मैंने सोचा कि क्या हुआ गर तथाकथित चिट्ठाकार बन्धु मुझे चिट्ठाकारों की श्रेणी में नहीं रखते, मैं खुद को ब्लॉगर तो समझता ही हूँ। कोई टैग नहीं करेगा तो खुद ही प्रश्न बनाकर उत्तर पेश करूँगा। मैंने सवाल-जबाब का ख़ाका तैयार भी कर रखा था मगर २७ फ़रवरी को डॉ॰ भावना कुँवर ने मुझे भी टैग कर दिया। तबसे उनके सवालों के जबाब तलाशता रहा क्योंकि उनके प्रश्न कठिन तो नहीं थे परंतु गैर ज़रूरी अवश्य थे। ये सवाल शायद उन्हीं जैसे साहित्यिक हस्तियों के लिए संकल्पित थे। उनको गलतफ़हमी हो गई और ये सवाल मुझे भी दाग दीं। अब जब पूछ ही लिया था तो देर-सबेर जबाब देना ही था। उनके प्रश्नों को मैंने जहाँ तक समझा है, उत्तर देने का प्रयास किया है-

प्रश्न १- साहित्यिक जगत से जुड़ा हुआ कोई अनुभव बतायें?

मैं जिस गाँव का रहने वाला हूँ, वहाँ से ५० किमी के भीतर इण्टरमीडिएट (११वीं और १२वीं कक्षा) विज्ञान वर्ग हेतु कोई विद्यालय नहीं था। मुझे रेणुकूट (सोनभद्र, उत्तर प्रदेश, भारत) आना पड़ा जहाँ मुझे वन निगम में चौकीदार चाचा के मित्र के साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनका नाम शिवपूजन था, उम्र में मेरे पिता के बराबर, मात्र नाम के अभिभावक। बहुत ही रसीले व्यक्ति थे। उन्हें वेद प्रकाश शर्मा, ओम प्रकाश शर्मा, केशव पंडित, समीर, रीमा भारती, राजभारती, डार्लिंग, जेम्स हेडली चेइज़ (अनूदित उपन्यास) आदि बाज़ारू उपन्यासकारों के उपन्यास बहुत पसंद थे। मैं उस समय तक यह नहीं जानता था कि उपन्यासों को साहित्यिक और बाज़ारू दो श्रेणियों में बाँटा जाता है। मैं समझता था कि प्रेमचन्द के सभी उपन्यास भी इन्हीं उपन्यासों की तरह मनोरंजक होंगे। वे एक दिन में या अधिक से अधिक दो दिनों में नया उपन्यास ले आते थे। जब वो ड्यूटी चले जाते थे, मैं उनके द्वारा बीच में छूटे उपन्यास को पूरा-पूरा पढ़ जाता था और पढ़ने की शुरूआत करने से पूर्व यह भलीभाँति चेक कर लेता था कि पुस्तक तकिये के नीचे किस तरह से, किस पेज तक खोलकर और किस पेज तक मोड़कर रखी गई है। एक-दो बार उन्हें संदेह भी हुआ मगर मैं उन्हें आसानी से बेवकूफ़ बना लेता था।

१० जुलाई १९९९ को IIT-JEE की तैयारी के सिलसिले में पुण्य भूमि प्रयागराज आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यहाँ पर कुछ ऐसे लोग मिले जिन्होंने कुछ साहित्यिक उपन्यास पढ़ रखे थे। प्रथम बार मैंने धर्मवीर भारती का चर्चित उपन्यास 'गुनाहों का देवता' पढ़ा। बाज़ारू उपन्यासों को मैं ४-५ घण्टों में पढ़ जाता था मगर इस बार रूक-रूक कर पढ़ने में मज़ा आ रहा था और पूरा उपन्यास ४-५ दिनों में पढ़ पाया। मैं भी साहित्यिक उपन्यासों का दीवाना हो गया।

प्रश्न २- किस साहित्यिक विभूति से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और मिलने की इच्छा रही?

जिन लोगों को मैं साहित्यिक-विभूतियों की श्रेणी में रखता हूँ, उनसे तो नहीं हुआ। हाँ, जय प्रकाश मानस ने मुझे 'सृजनगाथा' के दिसम्बर अंक (दिल्ली-अंक) के अतिथि-सम्पादन का जिम्मा सौंपा था तब साहित्यकार लालित्य ललित, दीपक मंजुल आदि से मिलने का मौका मिला था। वहीं गुजराती साहित्यकार भाग्येन्द्र पटेल ने बताया कि दिल्ली की साहित्यिक विभूतियों से मिलना बहुत ही आसान काम है। इनकी कोई डिमान्ड नहीं है। कोई अगर मिलने जाता है तो उनके लिए सौभाग्य की बात होती है। हाँ, कमलेश्वर, खुशवंत सिंह आदि बूढ़े साहित्यकारों का स्वास्थय ठीक नहीं रहता है, इसलिए उनसे मिलने में थोड़ी कठिनाई होती है। उन्होंने यह वायदा किया कि मुझे ज़ल्द ही कमलेश्वर से मिलवायेंगे क्योंकि मैं उनसे मिलकर हिन्दी-चिट्ठाकारी पर चर्चा करना चाहता था, मगर दुर्भाग्य मेरा, उनका पहले ही देहावसान हो गया।
मैं मैत्रेयी पुष्पा, राजेन्द्र यादव से मिलकर कुछ व्यक्तिगत् सवाल करना चाहता हूँ मगर अवसर नहीं मिल पा रहा है।

प्रश्न ३- किस उम्र के पड़ाव से लिखना प्रारम्भ किया और क्यों?

तीन वर्ष (जुलाई १९९९ से अगस्त २००२ तक) प्रयागराज में गुजारने के बाद जी॰एल॰ए॰, मथुरा में बी॰टेक॰ कक्षा में प्रवेश ले लिया। तब तक मुझे हिन्दी के सुंदर शब्दों की आदत पड़ चुकी थी। कवि मित्रों की कविताओं की कमी महसूस होने लगी थी। एक दिन सोचा कि क्या मैं भी कविता कर सकता हूँ? (वैसे इससे पहले मैं कहानी, आलोचना, लेख आदि लिखता था)। मेरी पहली कविता में कवि मित्र मनीष वंदेमातरम् की कविताओं से चुराये गये शब्द हैं। मैं अपनी प्रथम कविता आपलोगों की नज़र कर रहा हूँ।

शीर्षक- 'आ जाओ'

प्रिये! मैं तुम्हारे प्यार में इस कदर डूब गया हूँ
कि दूर होकर के भी तुमसे अपने को
ज़ुदा महसूस नहीं करता।

होंठों की सुर्खियों की वह मिठास
आँखों के मय का वह नशा,
गालों के तिल, और बहता पसीना
मुझे लूटने को बेकरार हैं।

संगमरमरी हाथों का वह स्पर्श
सूरज से चमकते माथे की वह रोशनी
ज़ुल्फ़ों का वह घना अंधेरा
मुझे जीने नहीं देता।

हर पल तुम्हारी ही याद आती है।
जब-जब मैं साँस लेता हूँ
हवाओं में तुम्हारी मौज़ूदगी मससूस करता हूँ।
जब-जब मैं आँखें बंद करता हूँ,
सपनों की छाया तुम बन जाती हो।
यादों में भी तुम्हीं समायी हुई हो,
मैं कब तक तुम्हारा इंतज़ार करू?
अब मुझसे रहा नहीं जाता,
यह दर्द सहा नहीं जाता
मुझे अब ज़्यादा मत तरसाओ
दिल कहता है अब आ ही जाओ
आ जाओ।

लेखन-तिथि- ३० सितम्बर २००२ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०५९ आश्विन कृष्ण पक्ष की अष्टमी।

प्रश्न ४- होली उल्लास को लिये हुये आपके दरवाजे पर दस्तक दे रही है उस सन्दर्भ में कुछ लिखें?

अब तो फागुन का मौसम बीत चुका है, इसका जबाब क्या दूँ?


प्रश्न ५- युवा वर्ग में अपनी भारतीय संस्कृति को जीवित बनाये रखने एवं उनमें साहित्यिक अभिरुचि पैदा करने के लिये क्या प्रयास होने चाहियें?

भारतीय संस्कृति उत्तर वैदिक काल से ही भारतीयों में छद्‌म रूप से जीवित है। इस प्रश्न का उत्तर दे पाना इसलिए भी आसान नहीं है क्योंकि विद्वानों की नज़र में भारतीय संस्कृति और सभ्यता अलग-अलग चीज़ें हैं। एक पूर्ण वैज्ञानिक संकल्पना है और दूसरी छद्‌म व्यवहृत आचरण। ऐसी कोई संकल्पना नहीं है जो शुद्ध रूप से व्यवहार में हो। आमतौर अन्य देशों में ये दोनों चीज़ें एक दूसरे की लगभग पर्याय ही हैं। युवा वर्ग में इन्हें पुनर्जीवित एक ही प्रकार से किया जा सकता है कि आप जैसे बुजुर्ग विचारों को आचरण में लायें। यद्यपि वृद्धों से इसकी उम्मीद कम है, इसलिए आज के युवा वर्ग को शनैः शनैः संकल्पनाओं को मूर्त रूप देना होगा। यह एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है। विचार का व्यवहार में रूप-परिवर्तन में समय लगता है।

अब भारत के अधिकाधिक लोगों की सोच यूरोपीय हो चली है। उदारीकरण के कारण उद्योग बढ़े हैं। बहुराष्ट्रीय-कम्पनियों का शोर-शराबा है। साफ़्टवेयर जगत् में कर्मचारियों से ८ घण्टे के बजाय १४-१६ घण्टे का काम कराया जा रहा है। ऐसे में उसके पास जीने के लिए ही समय नहीं है तो साहित्य के लिए समय कैसे निकाले? चिट्ठाकारी के आ जाने से साफ़्टवेयर-प्रोफ़ेशनल साहित्य-प्रेमियों को बहुत राहत मिली है। मगर यहाँ भी वहीं लोग लिख-पढ़ पा रहे हैं जो सरकारी महकमों या कम कामों वाले निकायों में कार्यरत हैं या फिर मेरी तरह बेरोज़गार हैं और अपने धर्म का अंशतः पालन कर रहे हैं।

मुझे लगता है कि युवा वर्ग तक साहित्य धीरे-धीरे चिट्ठाकारी के माध्यम से पहुँच रहा है। देवाशीष, जयप्रकाश, जीतू, रमण आदि लोगों के सपनों को साकार रूप मिलता दिख रहा है और भावना जी की ऊर्जा भी सही दिशा में दिष्ट है।

प्रश्न ६- अपनी रुचि की ५ साईट जो ब्लॉग से अलग हों बतायें?

१) बीबीसी हिन्दी
२) सृजनगाथा
३) इन्फ़ोप्लीज
४) ज्योग्राफ़ी
५) शब्दकोश

बुधवार, 7 मार्च 2007

काश! मैं धावक होता

कितना रोक सकता है कोई
अपने ज़ज्बात!
पिछले घाव अभी ठीक से
भरे भी नहीं हैं,
फिर भी नवागंतुक ने
जीवन मैं जैसे फिर से हलचल ला दिया।
उसका मुस्कुरना, शरमो-हया
आखिर दर्शन ही तो सबकुछ नहीं होता।
जमीं पर रहकर कब तक
नकली विचारों का भार ढोवे वो?
रोज़-रोज़ इच्छाओं को मारता है,
सब बिन्दु तो नहीं हैं,
और बिन्दु ने किया ही क्या है?
किसी दूसरे का हाथ थामना,
गुनाह है?
ज़िदंगी अकेली नहीं कटती,
कब तक इंतज़ार करती उसका?
उसने समझ लिया था
ज़िदंगी इंतज़ार नहीं वो
तो दौड़ है।
वो ही रूक गया तो
इसमें, उसका क्या दोष?

पर डर कई तरह के होते हैं।
नवागंतुक भी कहीं बिन्दु की तरह
धावक निकली
तो!
पर इतना सोचना भी ठीक नहीं।

कल नवारूढ़ा ने ऐसे ही
देख लिया था
बिल्कुल नये की तरह।
सिहर गया था वो,
ये जानते हुये भी
कि मौसम हमेशा सुहाना नहीं होता।
कब दौड़ना सीखेगा?
ये धावकों से अच्छा
कौन बता सकता है।

लेखन-तिथि- ०९ सितम्बर २००५ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६२ भाद्रपद शुक्ल षष्ठी।

गुठलियाँ हमेशा फेंकी नहीं जातीं

जब भी हँसती है वो
हँसने जैसा।
पता नहीं कैसे मुझको
पता चला जाता है!

बहुत छुपाती है वो अपनी मुस्कराहट
नकली गुस्सा भी लाती है
चेपर पर।
पर चहकना नहीं भूल पाती है
पक्षियों की तरह।
कई बार आइने पर भी
नाराज़ हो जाती है।
बेचारा वो क्या करे!

कभी-कभी जब मंदिर जाती है
तो दीया की रोशनी में
उसे अपनी परछाईं देखना
बहुत अच्छा लगता है।
क्यों न लगे!
परछाइयाँ इच्छा के अनुरूप
छोटी-बड़ी जो होती रहती हैं।

पिछली बार
जब गाँव में आम पके थे
तो पक्षियों ने भी
उसका इठलाना चूसा था।
पहली बार उन्हें लगा कि
गुठलियाँ हमेशा फेंकी नहीं जातीं।

शहर आते वक़्त
मुझसे यही कहती थी-
तुम वहाँ क्यों जाते हो?
क्या यहाँ मैं अच्छी नहीं लगती?
मैं उसको आज तक
नहीं समझा पाया
हर चीज़ की कीमत होती है।
ज़रूरी नहीं हर चीज़
बाज़ार में बिके।
बता भी कैसे सकता था?
ज़रूरी तो नहीं
कि सबकुछ बताया जाय!


लेखन-तिथि- १२ सितम्बर २००५ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६२ भाद्रपद शुक्ल नवमी।

सोमवार, 26 फ़रवरी 2007

अभीष्ट के दर्शन

कैसे वंचित रख सकता है
कोई अपने आप को
इस वरदान से!
क्या उसके धमनियों में
रक्त का संचार नहीं!

अंधेरे में था मैं
सुनी-सुनायी बातों पर
भरोसा करता रहा।
बस एक शीतल स्पर्श ने
पूरा अंतस झूठला दिया
अब तक झूठे मंदिरों में
जाता रहा,
खोजता रहा था
अपना अभीष्ट,

पर वह मृग-मरीचिका थी।
मुर्दों की आँखों में
अपने कष्टों की
अभिव्यक्ति देखना चाह रहा था
शवों के हृदय में
मधुर-मिलन की
तड़प देखना चाह रहा था।

पर कितना सौभाग्यशाली था मैं!

जीवंत देवी के दर्शन हो गये।

जिस मार्ग पर दौड़ रहा था
उसमें था मात्र हाहाकार
चहुँओर फैला था
अतृप्त तृष्णा का विस्तार।

परन्तु अचानक
अमृत के दर्शन हो गये
रोम-रोम आवेगित हो उठा।

अब मैं
श्रद्धालु से पुजारी बनना चाहता हूँ,
अमर-मूर्ति का वंदन करना चाहता हूँ।

उसके स्पर्श की सुगंध
अभी तक साँसों में अध्यारोपित है,
विज्ञापन-चित्र की भाँति
सुयोग-चिह्न नैनों में समाहित है।

होश आ गया है मुझे
समझ गया हूँ मैं
स्त्री-सुख ही अभीष्ट सुख है।


लेखन-तिथि- २४ अप्रैल २००६ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६३ वैशाख कृष्ण पक्ष की एकादशी।
यह कविता वेबज़ीन कृत्या के फरवरी २००७ अंक में यहाँ प्रकाशित है।

सोमवार, 19 फ़रवरी 2007

वक़्त लगेगा

जो संवेदनायें मुझसे उठ कर गयी हैं
उन्हें तुझसे परावर्तित होकर
लौटने में वक़्त लगेगा।

जो महक अपने मन की भेजी है
उसे तुम्हारी जिस्मानी खुश्बूँ को
उड़ा लाने में वक़्त लगेगा।

जिस मोरनी की चाल को
जंगल से चुराकर भेजी है
उसे तुम्हारी मस्तानी चाल से
मात खाने में वक़्त लगेगा।

जिस आइने को गोरी से माँगकर भेजा है
उसे तुम्हारा
रूप चुराने में वक़्त लगेगा।

ममता जो कुछ बोलती ही नहीं
मौन में विश्वास है जिसका
तुमसे मिलना उसका और
चिल्लाने में वक़्त लगेगा।

लेखन-तिथि- ३० दिसम्बर २००५ तद्‌नुसार विक्रम-संवत् २०६२ पौष कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी।

मेरी यह रचना कविताओं की पत्रिका 'कृत्या' पर यहाँ प्रकाशित है।

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2007

कितना मुश्किल होता है

कितना मुश्किल होता है
लोगों को यह बताना
कि मैं कमजोर हूँ।
सामने जो पहाड़ है ना
उनकी तरह
मैं नहीं
लाँघ सकता।
सबने बराबर झूठ बोले हैं।।

कितना मुश्किल होता है
पिताजी को यह समझाना
कि बाबूजी
पढ़ते-पढ़ते अब
जी ऊब गया है।
सब ढकोसले हैं।
बड़ी मुश्किल से तो मुझे
यह बात समझ में आयी है
मगर आप नहीं समझ पावोगे।।

कितना मुश्किल होता है
सुब्बो को यह समझाना
कि पगली,
जिन रेल की पटरियों पर
कभी बिना गिरे
सम्भल सम्भल कर चलना
मुझे अच्छा लगता था।
उन्हीं पर चढ़कर
मुझे दिल्ली जाना पड़ता है।
इन्हीं पटरियों ने बहुतों का घर सूना किया है।।

कितना मुश्किल होता है
भगवान को यह समझाना
कि यह दुनिया
जैसी तुमने बनायी थी
वैसी नहीं बची है।
अब लोगों ने नियम बदल लिये हैं।
अब तुम मत आना
नहीं तो तुम्हारी
पोल खुल जायेगी।
विश्वास नहीं है ना
तो मजबूर का अवतार ले ले
फिर रावण क्या
तू तो लालू से नहीं मिल पायेगा।

यह कविता वेबज़ीन कृत्या के फरवरी अंक में भी प्रकाशित है।

लेखन-तिथि- ०२ दिसम्बर २००५ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६२ मार्गशीर्ष शुक्ल प्रथमा।

सोमवार, 29 जनवरी 2007

विधाता बहुत कर्मजला है

रोज़ रात
माँ फ़ोन पर पूछती है-
बेटा!
खाना खा लिया?
ये जानते हुये भी
कि मैं कैसे भूखा रह सकता हूँ!
नौकरी है जब साथ में,

पर माँ से
कभी यह भी नहीं कह सका
माँ!
कुछ आदमी जैसे जानवर
मेरे घर के चारदीवारी के बाहर
भि सोते हैं,
भूखे और नंगे।
कई बार
उन्हें किसी अमीर घर की
रोटी भी मिल जाती है
या सड़ी हुयी दाल।

माँ!
उनकी माँएँ भी तो नहीं हैं
जो प्यार खिलाती हैं
प्यार पिलाती हैं
और प्यार पर सुलाती हैं।
उनके माँओं का
भाग्य ही ऐसा है
गर्भवती हुयीं
तो मरना निश्चित।
अरे, मरना तो पड़ेगा ही
नहीं तो अपने लल्लों
के लिए
रोटी का हक माँगने लगेंगी
क्योंकि उन्हें कौन रोक सकता है?

माँ!
विधाता सब जानता है,
इसलिए तो
खतरे को उपजने
ही नहीं देता।

माँ!
बिरजू को जानती हो ना?
वही, जब तुम शहर आयी थी
दयालु होकर
एक रूपया दे दिया था उसे।
उसकी माँ उसको
नहीं जनना चाहती थी
सल्फ़ास भी खाया
पेट साफ करने के लिए
पर
यह विधाता
माँ!
बहुत कर्मजला है।
बिरजू
गर्भ फाड़कर निकल आया।


लेखन-तिथि- १३ सितम्बर २००५ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६२ भाद्रपद्र शुक्ल दशमी।

सोमवार, 1 जनवरी 2007

सीसे की भीत

नये वर्ष का मधुर संगीत
जैसे कर्णप्रिय गीत
जैसे मन का मीत
वृद्धों का अतीत
तेरी-मेरी प्रीत
जैसे सत्य की जीत
जैसे प्रेम की रीत
जैसे शिशिर की शीत

नाचो-गाओ, धूम मचाओ
कहीं ये पल जाये ना बीत।

आपस में खुशियाँ बाँटो
राहों के सारे काँटे छाँटो
कहीं मीत को काँटा लगा
ह्रदय में कहीं आह जगा
ह्रदय मेरा द्रवित होगा
कुछ ऐसा अजीब घटित होगा
काँच की तरह विघटित होगा

क्योंकि दिल है मेरा
सीसे की भीत, सीसे की भीत।।

लेखन-तिथि- २ जनवरी २००३ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०५९ पौष मास की अमावस।

मंगलवार, 19 दिसंबर 2006

अंतहीन अभीष्ट

लिखते-लिखते
पहुँच जाते हैं शब्द
अभीष्ट तक।
अंतहीन अभीष्ट......

बहुत अज़ीब बात है,
कुछ मायनों में
बेदुरूस्त शै भी
क़रीने से ज़्यादा
खूबसूरत और लाज़बाब होती है।
हर बार एक ही
आयोजन व प्रयोजन।
थकने की सोचना भी
वफ़ाई की दीवार है।

रोज़ दराज़ों से निकाल-निकाल कर
ख़्वाब,
सजाता रहता हूँ क़ाग़ज़ी फ़र्श पे।
रंगीन सितारों से जलाता रहता हूँ
आशा और प्रतिआशा का दीया।
सुबह का सूरज
और फिर
रात का चाँद।
हर बार यूँही आते भी हैं
और जाते भी।

दराज़ों का खुलना
और बंद होना भी है
जैसे
अंतहीन अभीष्ट।
अंतहीन अभीष्ट......

सोमवार, 11 दिसंबर 2006

तो अच्छा था

ग़र जानता कि ज़िंदगी यहाँ तक लायेगी,
दो घड़ी चैन के जी लेते तो अच्छा था।
यौवन की प्यास नहीं बुझ पायेगी,
दो घुट नीर के पी लेता तो अच्छा था।


सपने में देखा था तुमको,
सरिता के श्यामल जल में।
लगा मुझे सरिता में नहीं
खड़ी हो मेरे ह्रदयतल में।

होठों ने जब छूना चाहा
तेरे रसाक्त अधरों को
वास्तविकता की धरा पायी थी
मैंने दो ही पल में।।


ग़र जानता कि तू नहीं मिल पायेगी
चुन किसी को भी लेता तो अच्छा था।
यौवन की प्यास--------


आकाश और पाताल को एक कर देना है,
अभियंता के ज़रिए देश को कुछ देना है।

आते ही जाना मैंने, केवल रेतों की जमीं
पर अब तो कश्ती को खेना है।।


ग़र जानता कि पढ़ाई मुश्किल पड़ जायेगी,
चलाना हल भी सीख लेता तो अच्छा था।
यौवन की प्यास नहीं बुझ पायेगी,
दो घुट नीर के पी लेता तो अच्छा था।।

लेखन-तिथि- २८ नवम्बर २००३ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६० मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की पंचमी।

मंगलवार, 5 दिसंबर 2006

शांतप्रहरी

(हालाँकि मैं तुकान्त कविता नहीं लिख पाता, फिर भी एक बार कुछ तुकान्त कविताएँ लिखी थी। इस श्रेणी में आनेवाली दूसरी कविता आपकी नज़र कर रहा हूँ। पहली कुछ कारणों से अभी नहीं प्रकाशित कर रहा हूँ। यह कविता मेरे प्रारम्भिक दौर की है, इस लिए वृहद-शब्दकोश के अभाव के कारण तथाकथित कुछ गैरसम्मानित शब्दों का भी समावेश है। सुदंर भाषा प्रेमी मुझे माफ करेंगे!)



हे प्राणेश्वरी, हे कामेश्वरी
मेरे ह्रदय की तुम रागेश्वरी।
इस कांतिमय मन-मंदिर का
मैं शांतप्रहरी, मैं शांतप्रहरी।।

ये किन कर्मों का फल है कि मैंने तुमको पाया है।
ये बहु-प्रतीक्षित सा समय, मेरे जीवन में आया है।।
ये मूरत तेरी, ये सूरत तेरी, कितनी सुन्दर काया है।
चेहरे से नज़रे हटा न सका, ये तेरी कैसी माया है।।

ये गाल तेरी, ये चाल तेरी
नथूनों में अज़ब सी लाली है।
कमर कहूँ या तिनका मैं?
जुल्फ़ घटा से काली है।।

यह पिंडलियों की स्निग्धता
मुझे मतवाला कर देती है।
यह नितम्बों का भारीपन
तन में मस्ती भर देती है।।

गिरि के उतुंग शिखर जैसे
वक्षों की छटा निराली है।
उभारों के बीच का अंतराल
लगता है कुछ खाली-खाली है।।

तेरे रूप-वर्णन में, शब्दों की चिंता होती है।
कुछ कैसे कहूँ मैं? ज़ुबाँ लब्ज़ का साथ खोती है।।

डर लगता है कि इज़हार-ए-ज़ुबाँ न कर पाया।
मेरे रोम-रोम से गर प्रेम-सुधा न झर पाया।।

तो फिर क्या होगा?

ये सोच मन काँप जाता है।
फिर कुछ समझ न आता है।।

दया करो हे हृदयेश्वरी!
अपने गुलाम पर दया करो।
कुछ तो कसमों की हया करो।।

हे मेरी गुणेश्वरी!
इस कांतिमय मन-मंदिर का
मैं शांतप्रहरी, मैं शांतप्रहरी।।

लेखन-तिथि- ३ जनवरी २००३ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०५९ पौष शुक्ल प्रतिपदा।

सोमवार, 27 नवंबर 2006

इंतज़ार

ये उदास ज़िंदगी
बरबस ही उछलने को बेताब है।
शायद कोई आनेवाला है
उसके लिए राहों में फूल बिछाना है
काँटों को हटाना भी है।
कहीं उसके पाँव ज़ख़्मी हुये तो
मेरा दिल ज़ख़्मी नहीं होगा!
जबकि शिशिर आ चुका है
हर "शै' ठण्ड में सिकुड़ी है।
न पत्तों को हिलने का मन करता है
और न ही कोयल को कूकने का।
फिर भी मेरा दिल बल्लियों उछल रहा है।
शायद शीतल पूरवइयाँ
कानों में आकर यह संदेशा दे गई है-
कि कोई आने वाला है
जो अपना है, केवल अपना।
जिसे मैं अपना कह सकता हूँ
जिसके सपने बुन सकता हूँ
जिसके लिए बरसों इंतज़ार किया है।
जी चाहता है वह मधुर बेला
जब इस उपवन में फूल बन वह महके
जिससे पतझड़ में भी बहार आ जायेगी
अभी आ जाये।
उसको एक नज़र देखने को दिल बेताब है।
ना जाने वह कैसा होगा?
शायद मूरत के जैसा
या फूलों से भी सुंदर, या बिल्कुल अलग
जिसकी कोई उपमा ही नहीं।
उसी के इंतज़ार में---


लेखन तिथि- २५ दिसम्बर २००२ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०५९ पौष कृष्ण की षष्ठी।

शुक्रवार, 24 नवंबर 2006

प्रेम-पुष्प-७ (अंतिम रचना)

टूट-टूट कर बिखर गया पूरा वज़ूद
उदासी के पत्थर से।
फट गयी आस्था की नस
खालीपन के नश्तर से।
गिर गयी विश्वास की दीवार
वास्तविकता के धक्के से।
बिक गयी आज फिर से
मुहब्बत की बिरादरी
उन्हीं कागज़ी नोटों से
जिनका इस्तेमाल करते थे वे
उपहारों के लिए
तड़प कर रह गया मछली सा मन
जब फेर ली उसने दरियाई आँखें
बस साँस ले रहा हूँ।

लेकिन कब तक ले पाऊँगा
डॉक्टरी मदद?
क्षणिक हो गया है सबकुछ
दिल का कोना-कोना भर गया है।

नहीं कुछ कर पाया
दर्शन को पढ़कर
शायद अब उतरूँगा मैं
पागलपन के साथ
बता दो जमाने को
अब नहीं होगी शिकायत उनको
मुझसे।
नहीं देखूँगा आशिकों के ख़्वाब
लूँगा मैं भी गंदी हवाओं में साँसें
छोड़ दूँगा हर अच्छाई को
शामिल हो गया हूँ आज से
मैं भी समन्दर में
अब मैं गंगा नहीं रहा
हो गया है ख़ारा सारा का सारा वज़ूद।

ऐ हवा!
कहना उनसे
नहीं है उनसे कोई शिकायत।
मरा हूँ नहीं अभी मैं
वही कहें कैसे जा सकती है
रूह इस ज़िस्म से
वादा तोड़ दे भले ही वे?
खींच कर मार दें
एक तीर प्यार का
वादा रहा मेरा
खून का क़तरा-क़तरा जोड़ेगा
मेरा दिल और
बना देगा एक धारा
और पहुँच जायेगा उनके चरणों तक।


लेखन तिथि- २१ फरवरी २००५