शनिवार, 6 मई 2006

जीने नहीं देते वो

कल रात
फिर से आ घिरा था
उनके बीच
आँख मिचौली खेल रहे थे
वे
अचानक कँपकँपा गया था मन
सोचा
प्रकाश कर दूँ कमरे में
अभी उठकर पकड़ लूँगा उनको
पर वैसे ही पड़ा रहा
क्योंकि जानता था
प्रकाश की एक किरण भी
मेरी परेशानी बढ़ायेगी
भूत में
ऐसे कई प्रयास कर चुका था मैं
यह जानते हुये कि
प्रकाश होते ही
वे मेरे ही रूह में बैठ जायेंगे
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पता नहीं कब चैन लेने देंगे
ये अंधेरे!
शायद----- शायद
तब
जब अंतर एवम् बाहरदोनों प्रकाशित होगा
पर---- कब
शायद अंतिम श्वास की घड़ी तक
यह सम्भव नहीं हो सकेगा।

लेखन-तिथिः ३० मई २००४