सोमवार, 27 नवंबर 2006

इंतज़ार

ये उदास ज़िंदगी
बरबस ही उछलने को बेताब है।
शायद कोई आनेवाला है
उसके लिए राहों में फूल बिछाना है
काँटों को हटाना भी है।
कहीं उसके पाँव ज़ख़्मी हुये तो
मेरा दिल ज़ख़्मी नहीं होगा!
जबकि शिशिर आ चुका है
हर "शै' ठण्ड में सिकुड़ी है।
न पत्तों को हिलने का मन करता है
और न ही कोयल को कूकने का।
फिर भी मेरा दिल बल्लियों उछल रहा है।
शायद शीतल पूरवइयाँ
कानों में आकर यह संदेशा दे गई है-
कि कोई आने वाला है
जो अपना है, केवल अपना।
जिसे मैं अपना कह सकता हूँ
जिसके सपने बुन सकता हूँ
जिसके लिए बरसों इंतज़ार किया है।
जी चाहता है वह मधुर बेला
जब इस उपवन में फूल बन वह महके
जिससे पतझड़ में भी बहार आ जायेगी
अभी आ जाये।
उसको एक नज़र देखने को दिल बेताब है।
ना जाने वह कैसा होगा?
शायद मूरत के जैसा
या फूलों से भी सुंदर, या बिल्कुल अलग
जिसकी कोई उपमा ही नहीं।
उसी के इंतज़ार में---


लेखन तिथि- २५ दिसम्बर २००२ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०५९ पौष कृष्ण की षष्ठी।

शुक्रवार, 24 नवंबर 2006

प्रेम-पुष्प-७ (अंतिम रचना)

टूट-टूट कर बिखर गया पूरा वज़ूद
उदासी के पत्थर से।
फट गयी आस्था की नस
खालीपन के नश्तर से।
गिर गयी विश्वास की दीवार
वास्तविकता के धक्के से।
बिक गयी आज फिर से
मुहब्बत की बिरादरी
उन्हीं कागज़ी नोटों से
जिनका इस्तेमाल करते थे वे
उपहारों के लिए
तड़प कर रह गया मछली सा मन
जब फेर ली उसने दरियाई आँखें
बस साँस ले रहा हूँ।

लेकिन कब तक ले पाऊँगा
डॉक्टरी मदद?
क्षणिक हो गया है सबकुछ
दिल का कोना-कोना भर गया है।

नहीं कुछ कर पाया
दर्शन को पढ़कर
शायद अब उतरूँगा मैं
पागलपन के साथ
बता दो जमाने को
अब नहीं होगी शिकायत उनको
मुझसे।
नहीं देखूँगा आशिकों के ख़्वाब
लूँगा मैं भी गंदी हवाओं में साँसें
छोड़ दूँगा हर अच्छाई को
शामिल हो गया हूँ आज से
मैं भी समन्दर में
अब मैं गंगा नहीं रहा
हो गया है ख़ारा सारा का सारा वज़ूद।

ऐ हवा!
कहना उनसे
नहीं है उनसे कोई शिकायत।
मरा हूँ नहीं अभी मैं
वही कहें कैसे जा सकती है
रूह इस ज़िस्म से
वादा तोड़ दे भले ही वे?
खींच कर मार दें
एक तीर प्यार का
वादा रहा मेरा
खून का क़तरा-क़तरा जोड़ेगा
मेरा दिल और
बना देगा एक धारा
और पहुँच जायेगा उनके चरणों तक।


लेखन तिथि- २१ फरवरी २००५

मंगलवार, 14 नवंबर 2006

प्रेम-पुष्प-६

प्रिये,
तुम्हारी ज़ानिब से उठी संवेदनाएँ
शायद नहीं पहुँच पाईं हैं मुझ तक।
शायद मिल गया है कोई
रास्ते का साथी।
घूमा रहा होगा किन्हीं
ठण्डी जगह पर।
लिपटा रहा होगा अपनी
गर्म-लिबासों के ज़ाल में।
कहीं पिघल न जाये तुम्हारे
अरमानों का बिस्तर।
नहीं तो पहुँच न पायेगा
वो मुझ तक।
क्योंकि रास्तों में बर्फीली चट्टाने हैं
जिन्होंने ज़ज़्ब किये हैं
तमाम आशिकों के ख़्वाब।
जब गर्मियों में आते हैं सैलानी
उनकी जिस्मानी गर्मी से पिघलते हैं
ये स्वप्न
और बढ़ा देते हैं
पानी गंगा का।
उस समय दौड़ने लगता है
मेरा पूरा वज़ूद
दरिया की तरफ।
समेट लेता है सारे स्वप्न
और सहेज कर रख लेता है
आँखों में।
जैसे कल की ही बात हो---
संवेदनाएँ चल पड़ी हैं
शायद फिर से॰॰॰॰॰


लेखन-तिथि- १ फरवरी २००५ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६१ माघ मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी।

मंगलवार, 7 नवंबर 2006

प्रेम-पुष्प-५

प्रिये,
सुबह का प्रहर है,
सूर्य की किरणें कक्ष में
इधर-उधर दौड़ने लगी हैं।
तुम अभी-अभी
कोई नया-नया सपना देखकर जगी हो।
शीत का कंधा थामे दूब
ठंडी हवाओं को धिक्कारती झाड़ियाँ
हेम से जूझता अलाव
और आशियाने से उड़ते पक्षी
सब तुम्हारा और
इस नये साल का स्वागत कर रहे हैं।
मुझे भी तुम्हारे जगने की आहट
मिल चुकी है।
यह वर्ष मेरे लिए भी विशेष है
तुम्हारा आगमन
तुम्हारा रूहानी स्पर्श
अपरिभाषित सम्बन्ध
अलिखित दासता
एक विचित्र सा अनुभव!
सबको नववर्ष की बधाईयाँ
दे चुका हूँ मैं।
पर किस तरह से करूँ
तुम्हें नव वर्ष मुबारक?
कुछ समझ नहीं पाता हूँ।
नहीं लिख पाता हूँ
भावनाओं की उथल-पुथल।
जब बात करता हूँ तो
कँपकँपाती है आवाज़
जब चलता हूँ तो
डगमगाते हैं कदम।
शहर से गुजरता हूँ तो
फेंकते हैं लोग पत्थर
बादल को भी
मेरा नाम दिया जाता है।
इतना होने पर भी
नूतन वर्ष में खुशियाँ अपार हैं।
क्या हुआ जो हम-तुम पास नहीं हैं?
दूरी मिटाने का बहाना तो है-
शायद इस बार
नव वर्ष ने रूप लिया है उसका।


लेखन-तिथि- २६ दिसम्बर २००४ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६१ मार्गशीर्ष की पूर्णिमा।