अभीष्ट के दर्शन
कैसे वंचित रख सकता है
कोई अपने आप को
इस वरदान से!
क्या उसके धमनियों में
रक्त का संचार नहीं!
अंधेरे में था मैं
सुनी-सुनायी बातों पर
भरोसा करता रहा।
बस एक शीतल स्पर्श ने
पूरा अंतस झूठला दिया
अब तक झूठे मंदिरों में
जाता रहा,
खोजता रहा था
अपना अभीष्ट,
पर वह मृग-मरीचिका थी।
मुर्दों की आँखों में
अपने कष्टों की
अभिव्यक्ति देखना चाह रहा था
शवों के हृदय में
मधुर-मिलन की
तड़प देखना चाह रहा था।
पर कितना सौभाग्यशाली था मैं!
जीवंत देवी के दर्शन हो गये।
जिस मार्ग पर दौड़ रहा था
उसमें था मात्र हाहाकार
चहुँओर फैला था
अतृप्त तृष्णा का विस्तार।
परन्तु अचानक
अमृत के दर्शन हो गये
रोम-रोम आवेगित हो उठा।
अब मैं
श्रद्धालु से पुजारी बनना चाहता हूँ,
अमर-मूर्ति का वंदन करना चाहता हूँ।
उसके स्पर्श की सुगंध
अभी तक साँसों में अध्यारोपित है,
विज्ञापन-चित्र की भाँति
सुयोग-चिह्न नैनों में समाहित है।
होश आ गया है मुझे
समझ गया हूँ मैं
स्त्री-सुख ही अभीष्ट सुख है।
लेखन-तिथि- २४ अप्रैल २००६ तद्नुसार विक्रम संवत् २०६३ वैशाख कृष्ण पक्ष की एकादशी।
यह कविता वेबज़ीन कृत्या के फरवरी २००७ अंक में यहाँ प्रकाशित है।