मंगलवार, 26 सितंबर 2006

प्रेम-पुष्प-२

प्रिये,
कभी देखा है तुमने
सूखते हुये घास
और मुरझाते हुये प्रभात को
कितने बेवस नज़र आते हैं वे
समझ लो वही हो गया हूँ आजकल
कहते हैं न- दीये में तेल डालते ही
उसके जलने की तमन्ना और बढ़ जाती है
मेरी भी आरज़ूयें बढ़ने लगी हैं
नहीं सोच पाता क्या होगा अंजाम
कब गिरेंगी दीवारें
कब बनेगा संगमरमरी ताजमहल
कब जायेगी सड़क दिल के इस छोर से
उस छोर तक
मैं तो चल पड़ा हूँ
इस राह में तुम्हारे सहारे
बहुत से चौराहों को लाँघ भी लिया है
न जाने इतना साहस कहाँ से आ गया है
लोग ठीक कहते थे
किसी का साथ हो तो
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सागर की सीमा
आकाश की ऊँचाई
और पाताल की गहराई
भी नापी जा सकती है
लड़खड़ाने लगे हैं कदम मेरे
पर इस डगमगाहट में भी मज़ा है
प्रयास करता हूँ न देखूँ स्वप्न
न जाऊँ समय से आगे
पकड़ा रहूँ हाथ वास्तविकता का
पर रहता है कहाँ होश
कहाँ दबते हैं ज़ज्बात
अब तो शाम-ओ-सहर
यादों की दरिया में गोता लगा रहा हूँ
कभी डूबता भी हूँ
और कभी उतरता भी हूँ
शायद तुम तिनकों की मानिन्द
बहती रहती हो, बहती रहती हो
ताकि जब मैं डूबने लगूँ
तो तुम मुझे उबार सको।


लेखन-तिथि- २६ नवम्बर २००४ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६१ कार्तिक मास की पूर्णिमा।

मंगलवार, 19 सितंबर 2006

प्रेम-पुष्प

प्रिये,
असमंजस में डाल दिया है तुमने,
इतना आसान नहीं है
भावनाओं को शब्दों में पिरोना
इतना सरल नहीं है
उड़ते बादलों को पकड़ना।
बस इतना जा लो
मन कहीं नहीं लगता आजकल
कभी तितली, कभी झरने की तरह
इठलाता रहता है इधर-उधर।
बदल गयी है दुनिया मेरी
अब कुछ पुराना नहीं लगता
जीवन को गति मिल गयी है।
कहते हैं ना मंजिल तक पहुँचना
आसान हो जाता है
जब हमराह साथ में हो।
बस इतना जा लो
नहीं रहा कुछ भी मेरा
छोड़ दिया है सबकुछ
लम्हों के आसरे।
शायद सिमट गया है
सम्पूर्ण अस्तित्व तुम्हारे में ही
बढ़ गया है श्वासों का त्वरण
घटने लगी है दर्शन की गहराई।
देखने लगा हूँ सपने
करने लगा हूँ प्रयत्न
कि कर सकूँ साकार।
हटा दिया है प्रत्येक आवरण
खोल दी है दिल की किताब
सालों की मैल थी उनपर
फेरने लगा हूँ उँगलियाँ।
अब नहीं ज़रूरत समझता
मकड़ी के जालों का घर में
क्योंकि मिल गया है कवच
अटूट, अविखण्डित तुम्हारे जैसा।
नहीं डर लगता मर जाने से॰॰॰॰॰
और कुछ जानना है तो
महसूस करो दिल की धड़कनें
पावोगी॰॰॰॰॰॰॰॰॰
कि सबकुछ तुम्हारा है।


लेखन-तिथि- दिनांक ८ नवम्बर २००४ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६१ कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी।

मंगलवार, 12 सितंबर 2006

ना रहे उजाला

हर रात निगलता रहा है
चाँद अँधेरों को,
धरा के कुछ टुकड़े को
आलोकित करता रहा है वो।
भूभाग पर सिमटा उनका
अस्तित्व
कुछ पल के लिए ही सही
सकून देता रहा है
खानाबदोशों को।
पर यह चाँद
कहाँ लेने देता है
संतोष की साँस!
आकाश का सीना चीरते घर
हमेशा से उसकी आँखों में
चुभते रहे हैं।
इंतज़ार में रहता है
उन रातों की
जब रात के पास तनहाई हो।
ताकि कुछ समय के लिए
भूल जाये सबकुछ
ना रहे उजाला
ना दीख पाये भविष्य
ना ही स्मृति-चिन्ह
भूत का।
सो सके अपनी महबूबा के साये में।
महसूस कर सके
वही है इस धरा की अप्सरा,
रोशनी का एक भी क़तरा
ना रहे उनके बीच।
आते-जाते लोगों की नज़रें
ना घूर सके
उनके अस्तित्व को।
सिमट जाये सब कुछ
अँधेरों की तरह।
ताकि जब फिर से चाँद आये
तो वो भी अपना अस्तित्व
लुटा दे रात्रि में।


लेखन-तिथि- दिनांक १२ अगस्त २००४ तद्‌नुसार विक्म संवत् २०६१ श्रावण (द्वि॰) कृष्ण पक्ष की द्वादशी।