सोमवार, 29 जनवरी 2007

विधाता बहुत कर्मजला है

रोज़ रात
माँ फ़ोन पर पूछती है-
बेटा!
खाना खा लिया?
ये जानते हुये भी
कि मैं कैसे भूखा रह सकता हूँ!
नौकरी है जब साथ में,

पर माँ से
कभी यह भी नहीं कह सका
माँ!
कुछ आदमी जैसे जानवर
मेरे घर के चारदीवारी के बाहर
भि सोते हैं,
भूखे और नंगे।
कई बार
उन्हें किसी अमीर घर की
रोटी भी मिल जाती है
या सड़ी हुयी दाल।

माँ!
उनकी माँएँ भी तो नहीं हैं
जो प्यार खिलाती हैं
प्यार पिलाती हैं
और प्यार पर सुलाती हैं।
उनके माँओं का
भाग्य ही ऐसा है
गर्भवती हुयीं
तो मरना निश्चित।
अरे, मरना तो पड़ेगा ही
नहीं तो अपने लल्लों
के लिए
रोटी का हक माँगने लगेंगी
क्योंकि उन्हें कौन रोक सकता है?

माँ!
विधाता सब जानता है,
इसलिए तो
खतरे को उपजने
ही नहीं देता।

माँ!
बिरजू को जानती हो ना?
वही, जब तुम शहर आयी थी
दयालु होकर
एक रूपया दे दिया था उसे।
उसकी माँ उसको
नहीं जनना चाहती थी
सल्फ़ास भी खाया
पेट साफ करने के लिए
पर
यह विधाता
माँ!
बहुत कर्मजला है।
बिरजू
गर्भ फाड़कर निकल आया।


लेखन-तिथि- १३ सितम्बर २००५ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६२ भाद्रपद्र शुक्ल दशमी।

सोमवार, 1 जनवरी 2007

सीसे की भीत

नये वर्ष का मधुर संगीत
जैसे कर्णप्रिय गीत
जैसे मन का मीत
वृद्धों का अतीत
तेरी-मेरी प्रीत
जैसे सत्य की जीत
जैसे प्रेम की रीत
जैसे शिशिर की शीत

नाचो-गाओ, धूम मचाओ
कहीं ये पल जाये ना बीत।

आपस में खुशियाँ बाँटो
राहों के सारे काँटे छाँटो
कहीं मीत को काँटा लगा
ह्रदय में कहीं आह जगा
ह्रदय मेरा द्रवित होगा
कुछ ऐसा अजीब घटित होगा
काँच की तरह विघटित होगा

क्योंकि दिल है मेरा
सीसे की भीत, सीसे की भीत।।

लेखन-तिथि- २ जनवरी २००३ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०५९ पौष मास की अमावस।