मंगलवार, 24 अप्रैल 2007

.......और कुछ नहीं

ज़िंदगी बस मौत का इंतज़ार है, और कुछ नहीं।
हर शख़्स हुस्न का बीमार है, और कुछ नहीं।।

तुमको सोचते-सोचते रात बूढ़ी हो गई,
आँखों को सुबह का इंतज़ार है, और कुछ नहीं।।

अब तो जंगलों में भी सुकूँ नहीं मिलता,
हर चीज़ पैसों में गिरफ़्तार है, और कुछ नहीं।।

यह न सोचो, कहाँ से आती हैं दिल्ली में इतनी कारें,
जिनकी हैं, उनकी एक दिन की पगार है, और कुछ नहीं।।

नेताओं की दुवा-सलामी से कभी खुश मत होना,
चुनाव-पूर्व के ये व्यवहार हैं, और कुछ नहीं।।

हमने अपनी जी ली, जितना खुद के हिस्से में था,
बाकी की साँसें दोस्तों की उधार हैं, और कुछ नहीं।।

तेरे न फ़ोन करने पर, जब भी हम शिकायत करें,
इसे गिला मत समझना, ये तो प्यार है, और कुछ नहीं।।


लेखन-तिथि- १९ नवम्बर २००६ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६३ मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी।

मंगलवार, 17 अप्रैल 2007

राष्ट्रीय जल आयोग और हमारा नल

राष्ट्रीय जल आयोग-कार्यालय
के बाहर लगा नल
हमेशा
मेरे आते-जाते वक़्त
मुँह चिढ़ाता रहता है।

मैंने उसे कभी सूखा नहीं देखा
हमेशा
लार टपकाता रहता है
जैसे दिल्ली की
रमणियों का स्पर्श चाहता हो।

सिद्ध करता रहता है
कि भारत में
पानी की कमी नहीं है।

आने-जाने वालों
को तो उसके सुख-दुःख से
मतलब भी नहीं है।

रोज़ सुबह-सुबह
जब शौच भगवान
का अवतरण होता है
उस नल की याद आती है

एक वो नल
और यह हमारा!

काश!
कोई जल आयोगवालों को समझा पाता।


लेखन-तिथि- २३ जुलाई, २००६


भूमिका- जब तक सोनिया विहार का वाटर-प्लॉन्ट नहीं शुरू हुआ था, तब तक साउथ दिल्ली में पानी की बहुत किल्लत थी। उसी समय की आपबीती है। यद्यपि अब पानी की कमी का अंदाज़ा भी नहीं लग पाता है, मगर देश-दुनिया में बहुत सी ज़गहों पर इस तरह की परेशानी है।

सोमवार, 16 अप्रैल 2007

कहानी दो बूँद की (मुसलमान की आत्मकथा)

जानते हो,
क्यों नहीं पड़ते
मेरे दोनों पाँव
ज़मीन पर?

क्यों दे रखी है
सरकार
मुझे
यह बैसाखी-रिक्शा?

क्यों नहीं घुमा सकता
बच्चों को
कँधा-बिठाकर?

क्यों नहीं उठा सकता
अपने महबूब का
यह हल्क़ा बदन?

क्यों नहीं दे पाया
कँधा
अब्बा की लाश को?

क्यों नहीं मिल पाया
मुझे वो सम्मान
जिसका हक़दार
हो सकता था
मैं भी?

क्योंकि अब्बा
भेज देते थे
मुझे
ख़ाला के घर
जब आते थे
पोलियो ड्राप वाले।

क्योंकि नहीं चाहते थे वे
मैं नामर्द बनूँ।

नहीं चाहते थे
रुके उनका वंश।

चाहते थे
इतने बच्चे हों
कि जब इस्लाम हो ख़तरे में
तो कर सकें वो ज़ेहाद
फोड़ सकें कुछ बम
जला सकें कुछ बस्तियाँ
ऊँचा करें उनका नाम।

अब्बा!
काश!
मैं दो बूँद पीकर
नामर्द बन गया होता।


लेखन-तिथि- १८ फरवरी २००७ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६३ फाल्गुन प्रतिपदा।


भूमिका- इसी वर्ष के जनवरी माह में अखबारों में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी, जिसके अनुसार भारत में अभी भी ६०० से अधिक मामले पोलियो से शिकार लोगों के पाये गये हैं जो संख्यात्मक रूप से विश्व में दूसरे स्थान पर है, और विशेष बात यह है कि ५९० के आसपास उत्तर प्रदेश से हैं और वो भी ९९% मुस्लिमों में। उसी बीच ऑल इंडिया रेडियो वाले अपने समाचार के दौरान मुस्लिमों के हुई बातचीत भी प्रसारित किये थे, तब पता चला कि कैसे घर-घर जाकर जबरदस्ती पोलियो ड्राप पिलाने के बावज़ूद मामले आ रहे हैं, वे लोग अपने बच्चों को अपने रिश्तेदारों के यहाँ भेज देते हैं, या गाँव से बाहर कहीं छिपा देते हैं।

सोमवार, 9 अप्रैल 2007

कुछ बातें नयी-पुरानी

जब हम उदास होते हैं
अपने मन के अधिक पास होते हैं।


ज़रूरी नहीं ग़म में आँखें गीली हों
सबके अपने-अपने परिमाप होते हैं।


जिगर के टुकड़े को कभी नेता न बनाना
समाज के लिए ये अभिशाप होते हैं।


गर्दन दबते ही चाटते हैं तलवे
कहाँ अब ये महाराणा प्रताप होते हैं।


अब तो बागो में परिंदे भी नहीं आते
कहाँ अब लोगों को अवकाश होते हैं।


बेवफ़ाई तो हसीनों की फ़ितरत है
इश्क़ करने वाले हवा में कपास होते हैं।


कविताओं को कभी दिल पे मत लेना
ये तो कवि के दिल बहलाने के प्रयास होते हैं।


मौसम की छेड़ख़ानियों को बारिश न समझो
ये तो लहर और वर्षा के मिलाप होते हैं।


लेखन-तिथि- २६ मई २००६ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६३ ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी।

मंगलवार, 3 अप्रैल 2007

नयी तकनीक

जब कॉलेज़ में था तो मोबाइल हमेशा सरल मोबाइल संदेशों से भरा होता था, उसमें चलते-फिरते शेर होते थे। मैंने सोचा चलो इसी तरह का कुछ मैं भी लिखूँ। देखिए क्या लिखा था।


वे जो करते हैं मिसकॉल और कहते हैं कि हमें याद कर रहे थे।
कोई बताये उनसे हम बैलेंस न होने की फ़रियाद कर रहे थे।।

वहीं कुशल-क्षेम रोज़ाना जानना और बताना
रूठने-मनाने से ज़िन्दगी आबाद कर रहे थे।।

वो जो अकेले थे, पूछते थे लम्बी बातों का सबब
कैसे बतायें कि अपनी चुप्पी का क्या-क्या अनुवाद कर रहे थे।।

हम तो खुश थे उनकी बातों भरी दुनिया में
हमें क्या कि अलकायदा वाले कहाँ-कहाँ फ़साद कर रहे थे।।

पहले कहाँ होती थी रोज़ उनके बातों की झंकार
हम तो रह-रह कर नयी तकनीक का धन्यवाद कर रहे थे।।


लेखन-तिथि- २० मई २००६ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६३ ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी।