बुधवार, 7 मार्च 2007

काश! मैं धावक होता

कितना रोक सकता है कोई
अपने ज़ज्बात!
पिछले घाव अभी ठीक से
भरे भी नहीं हैं,
फिर भी नवागंतुक ने
जीवन मैं जैसे फिर से हलचल ला दिया।
उसका मुस्कुरना, शरमो-हया
आखिर दर्शन ही तो सबकुछ नहीं होता।
जमीं पर रहकर कब तक
नकली विचारों का भार ढोवे वो?
रोज़-रोज़ इच्छाओं को मारता है,
सब बिन्दु तो नहीं हैं,
और बिन्दु ने किया ही क्या है?
किसी दूसरे का हाथ थामना,
गुनाह है?
ज़िदंगी अकेली नहीं कटती,
कब तक इंतज़ार करती उसका?
उसने समझ लिया था
ज़िदंगी इंतज़ार नहीं वो
तो दौड़ है।
वो ही रूक गया तो
इसमें, उसका क्या दोष?

पर डर कई तरह के होते हैं।
नवागंतुक भी कहीं बिन्दु की तरह
धावक निकली
तो!
पर इतना सोचना भी ठीक नहीं।

कल नवारूढ़ा ने ऐसे ही
देख लिया था
बिल्कुल नये की तरह।
सिहर गया था वो,
ये जानते हुये भी
कि मौसम हमेशा सुहाना नहीं होता।
कब दौड़ना सीखेगा?
ये धावकों से अच्छा
कौन बता सकता है।

लेखन-तिथि- ०९ सितम्बर २००५ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६२ भाद्रपद शुक्ल षष्ठी।

4 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

जमीं पर रहकर कब तक
नकली विचारों का भार ढोवे वो?
रोज़-रोज़ इच्छाओं को मारता है,
सब बिन्दु तो नहीं हैं,
और बिन्दु ने किया ही क्या है?
किसी दूसरे का हाथ थामना,
गुनाह है?
ज़िदंगी अकेली नहीं कटती,
कब तक इंतज़ार करती उसका?


आपका एक-एक श्ब्द
टिका हुआ है,
हर उस बिन्दु पर
जो अपनी सुरक्षा,
और भोजन की चाह में
तय किये गये थे
मकड़ी द्वारा
अपने जाले के ब्लू-प्रिंट में...

भावों को इतना भी ना उलझाएँ
क़ि भावों को तलाशते हुए
पाठक ही कोई कविता रच जाये

कलम कों स्वतंत्र कर दो
काग़ज संग तन्हा कर दो
जैसे चाहे लिपटे, रूठें
उनका जीवन, उनका कर दो

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कविता अच्छी, परन्तु जटिलता लिये हुए है. आम पाठक आपके भावों को समझ सके इसके लिए साथ में कविता के बारे में एक छोटी सी भुमिका भी दे दिया करें.

बेनामी ने कहा…

अच्छी रचना ।

बेनामी ने कहा…

kavita to acchi hai kintu ganit thoda upar niche hai,mujhe laga ki thoda agar aap iska vistar kar paye to suvan allah.

divya ने कहा…

achchi rachna hai.....