सोमवार, 19 फ़रवरी 2007

वक़्त लगेगा

जो संवेदनायें मुझसे उठ कर गयी हैं
उन्हें तुझसे परावर्तित होकर
लौटने में वक़्त लगेगा।

जो महक अपने मन की भेजी है
उसे तुम्हारी जिस्मानी खुश्बूँ को
उड़ा लाने में वक़्त लगेगा।

जिस मोरनी की चाल को
जंगल से चुराकर भेजी है
उसे तुम्हारी मस्तानी चाल से
मात खाने में वक़्त लगेगा।

जिस आइने को गोरी से माँगकर भेजा है
उसे तुम्हारा
रूप चुराने में वक़्त लगेगा।

ममता जो कुछ बोलती ही नहीं
मौन में विश्वास है जिसका
तुमसे मिलना उसका और
चिल्लाने में वक़्त लगेगा।

लेखन-तिथि- ३० दिसम्बर २००५ तद्‌नुसार विक्रम-संवत् २०६२ पौष कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी।

मेरी यह रचना कविताओं की पत्रिका 'कृत्या' पर यहाँ प्रकाशित है।