जीने नहीं देते वो
कल रात
फिर से आ घिरा था
उनके बीच
आँख मिचौली खेल रहे थे
वे
अचानक कँपकँपा गया था मन
सोचा
प्रकाश कर दूँ कमरे में
अभी उठकर पकड़ लूँगा उनको
पर वैसे ही पड़ा रहा
क्योंकि जानता था
प्रकाश की एक किरण भी
मेरी परेशानी बढ़ायेगी
भूत में
ऐसे कई प्रयास कर चुका था मैं
यह जानते हुये कि
प्रकाश होते ही
वे मेरे ही रूह में बैठ जायेंगे
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पता नहीं कब चैन लेने देंगे
ये अंधेरे!
शायद----- शायद
तब
जब अंतर एवम् बाहरदोनों प्रकाशित होगा
पर---- कब
शायद अंतिम श्वास की घड़ी तक
यह सम्भव नहीं हो सकेगा।
लेखन-तिथिः ३० मई २००४
6 टिप्पणियां:
शैलेश जी, आपकी दूसरी कविताओं की ही तरह यह कविता भी बहुत अच्छी लगी। आप शब्दों को चित्रकार की तूलिका की भांति प्रयोग कर भावनाओं का बख़ूबी चित्रण करते हैं।
kafi mast kavita hai lekin pichhali wali se mast nahi hai.
mast hai lekin pichhali wali se mast nahi hai.
lajabab kavita hai ye .
bhawnawo ka uchit mixture hai isme.
kya kahun man aahladit ho gaya
bahut dino ke bad aisi bav vibhor kar dene wakli kavita par raha hun
nice one keep blogging
hey man i use to admire ur poems but dis is 1st time me i m puttin my views on ur poems...so i really liked ur creativity..nice ...keep it up yaar..wish u all d best...bye...tc
sumanpreet
MCA 3rd sem
GLAITM
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