सोमवार, 11 दिसंबर 2006

तो अच्छा था

ग़र जानता कि ज़िंदगी यहाँ तक लायेगी,
दो घड़ी चैन के जी लेते तो अच्छा था।
यौवन की प्यास नहीं बुझ पायेगी,
दो घुट नीर के पी लेता तो अच्छा था।


सपने में देखा था तुमको,
सरिता के श्यामल जल में।
लगा मुझे सरिता में नहीं
खड़ी हो मेरे ह्रदयतल में।

होठों ने जब छूना चाहा
तेरे रसाक्त अधरों को
वास्तविकता की धरा पायी थी
मैंने दो ही पल में।।


ग़र जानता कि तू नहीं मिल पायेगी
चुन किसी को भी लेता तो अच्छा था।
यौवन की प्यास--------


आकाश और पाताल को एक कर देना है,
अभियंता के ज़रिए देश को कुछ देना है।

आते ही जाना मैंने, केवल रेतों की जमीं
पर अब तो कश्ती को खेना है।।


ग़र जानता कि पढ़ाई मुश्किल पड़ जायेगी,
चलाना हल भी सीख लेता तो अच्छा था।
यौवन की प्यास नहीं बुझ पायेगी,
दो घुट नीर के पी लेता तो अच्छा था।।

लेखन-तिथि- २८ नवम्बर २००३ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६० मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की पंचमी।

2 टिप्‍पणियां:

गिरिराज जोशी ने कहा…
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गिरिराज जोशी ने कहा…

ग़र जानता कि पढ़ाई मुश्किल पड़ जायेगी,
चलाना हल भी सीख लेता तो अच्छा था।


अभी कौनसी देर हुई है भाई, सिखने की इच्छा होनी चाहिये बस। हमरी ताई के भाईसाहब के गाँव के पूजारीजी के ससुराल में श्री पोकरमल नाम के एक मास्टरजी है जो बिना किसी फीस के हल चलाना सिखाते है, कहो तो आपका दाखिला करवा देता हूँ और आपको यहाँ आने की भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसी वर्ष से उन्होने "डिस्टेंश लर्निंग प्रोग्राम" शुरू किया है।

कविता बहुत अच्छी लगी.