सोमवार, 16 अप्रैल 2007

कहानी दो बूँद की (मुसलमान की आत्मकथा)

जानते हो,
क्यों नहीं पड़ते
मेरे दोनों पाँव
ज़मीन पर?

क्यों दे रखी है
सरकार
मुझे
यह बैसाखी-रिक्शा?

क्यों नहीं घुमा सकता
बच्चों को
कँधा-बिठाकर?

क्यों नहीं उठा सकता
अपने महबूब का
यह हल्क़ा बदन?

क्यों नहीं दे पाया
कँधा
अब्बा की लाश को?

क्यों नहीं मिल पाया
मुझे वो सम्मान
जिसका हक़दार
हो सकता था
मैं भी?

क्योंकि अब्बा
भेज देते थे
मुझे
ख़ाला के घर
जब आते थे
पोलियो ड्राप वाले।

क्योंकि नहीं चाहते थे वे
मैं नामर्द बनूँ।

नहीं चाहते थे
रुके उनका वंश।

चाहते थे
इतने बच्चे हों
कि जब इस्लाम हो ख़तरे में
तो कर सकें वो ज़ेहाद
फोड़ सकें कुछ बम
जला सकें कुछ बस्तियाँ
ऊँचा करें उनका नाम।

अब्बा!
काश!
मैं दो बूँद पीकर
नामर्द बन गया होता।


लेखन-तिथि- १८ फरवरी २००७ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६३ फाल्गुन प्रतिपदा।


भूमिका- इसी वर्ष के जनवरी माह में अखबारों में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी, जिसके अनुसार भारत में अभी भी ६०० से अधिक मामले पोलियो से शिकार लोगों के पाये गये हैं जो संख्यात्मक रूप से विश्व में दूसरे स्थान पर है, और विशेष बात यह है कि ५९० के आसपास उत्तर प्रदेश से हैं और वो भी ९९% मुस्लिमों में। उसी बीच ऑल इंडिया रेडियो वाले अपने समाचार के दौरान मुस्लिमों के हुई बातचीत भी प्रसारित किये थे, तब पता चला कि कैसे घर-घर जाकर जबरदस्ती पोलियो ड्राप पिलाने के बावज़ूद मामले आ रहे हैं, वे लोग अपने बच्चों को अपने रिश्तेदारों के यहाँ भेज देते हैं, या गाँव से बाहर कहीं छिपा देते हैं।

29 टिप्‍पणियां:

राजीव रंजन प्रसाद ने कहा…

शैलेष जी.
इस कविता को ब्लॉग के अलावा भी जहा जहा संभव हो प्रकाशित करें, यह जितने अंधे पढ सके उतना बेहतर। बहुत सरलता और खूबसूरती से कविता कही गयी है..बहुत बधाई..

*** राजीव रंजन प्रसाद

Gaurav Shukla ने कहा…

समाज के कडवे सच का जो चित्र आपने खींचा है वो भीतर तक हिला देता है
पोलियो जैसी महामारी से भी अधिक घातक है सर्वत्र व्याप्त अशिक्षा, और रूढिवादिता की भयंकर बेडियाँ
सत्य ही तो कहा है

"अब्बा!
काश!
मैं दो घूँट पीकर
नामर्द बन गया होता।"

एक पोलियो से ग्रसित बच्चे की पीडा अपने कविता के माध्यम से पूरी ईमानदारी से व्यक्त कर दी है

सस्नेह
गौरव शुक्ल

Priyanka Srivastava ने कहा…

Shailesh Ji
Bahut Hee Meaningful Hai Aapki Yeh Rachna..........
Specially these lines are too good.

क्यों नहीं उठा सकता
अपने महबूब का
यह हल्क़ा बदन?

क्यों नहीं दे पाया
कँधा
अब्बा की लाश को?

क्यों नहीं मिल पाया
मुझे वो सम्मान
जिसका हक़दार
हो सकता था
मैं भी?


I wish ki Aap Iss bhi Jayada Aacha Likhe........

Regards,

PRIYANKA

बेनामी ने कहा…

शैलेश.. बहुत सुन्दर...

कविता जैसे जैसे बड़ती है, औंचक हर एक .. स्टैन्ज़ा में चकित सी कर देने वाली बात होती है, जो कि पिछले स्टैन्ज़ा में कही बात के अर्थ बदल कर रख देती है। काव्य की द्रष्टि से यह एक सुलक्षण है।
कव्य के शायद सभी गुणो को सार्थक भी कर रही है यह कविता।
अधिक शब्द ना लेकर कहूँगा.. कि यह एक सुन्दर रचना है।
लेखक के रूप में तुम्हारे जीवन के लिये बहुत बहुत शुभकामायें।

स-स्नेह
रिपुदमन पचौरी

बेनामी ने कहा…

कविता की तारीफ के लिए शब्द नहीं हैं। बहुत ही प्रासंगिक विषय है। मुझे लगता है आपने यह कविता इसके समय से लगभग एक या दो दशक पहले लिख दी है।

Mohinder56 ने कहा…

शैलेश जी,
कविता बहुत बढिया है... आंख खोल देने वाली..
कम शब्द ज्यादा असर...होमियोपैथिक दवाइ की तरह....

आप ने मेरी गजल से कुछ शब्द खाये थे मै‍ आपकी कविता मे‍ शब्द जोडना चाह्ता हू‍


क्यों दे रखी है
सरकार (सरकार ने)
मुझे
यह वैशाखी-रिक्शा? (वैशाखी = वेसाखी)
पोलियो ड्रा वाले। (ड्राप)

बेनामी ने कहा…

Yeh ek gambheer baat hai.Rajeevji sahi kah rahe hain is kavita ko har jagah publish kariye.Jitne zyada logon tak pahuchegi utna behtar hoga.

रंजू भाटिया ने कहा…

चाहते थे
इतने बच्चे हों
कि जब इस्लाम हो ख़तरे में
तो कर सकें वो ज़ेहाद
फोड़ सकें कुछ बम
जला सकें कुछ बस्तियाँ
ऊँचा करें उनका नाम।

क्या कहे इन सबकी नासमझी पर
बहुत सुंदर तरीक़े से आपने यह बात कह दी है
काश इसको पढ़ के कुछ चेतना जाग सके!!

SahityaShilpi ने कहा…

हमारे समाज के एक कड़वे सच को बहुत सरल परन्तु मार्मिक रूप से पेश करने के लिये, आप बधाई के पात्र हैं। मैं राजीव जी की इस राय से भी इत्तेफाक रखता हूँ कि इस रचना को यथासम्भव अधिकाधिक जगह प्रकाशित करने का प्रयास होना चाहिये। वैसे कविता में यदि आप किसी भी धार्मिक समुदाय विशेष के स्थान पर, इसके लिये जिम्मेवार मानसिकता व परिस्थितियों का उल्लेख करते तो शायद ज्यादा बेहतर होता। यह समस्या सिर्फ मुसलमानों की नहीं है, वरन् पूरे समाज की है और मुसलमानों में ऐसा ज्यादा होने के कई कारण हैं जो समाज के अन्य वर्गों को भी प्रभावित करते हैं। आशा करता हूँ कि आगे आप किसी समस्या के मूल तक पाठकों को ले जाने के लिये और भी गम्भीर तथा सुन्दर प्रयास करते रहेंगे।

बेनामी ने कहा…

shail,
bahut badhiya........................................................................................................................shabd nahi mil rahe,but wakai bahut badhiya likhi hai,
-mahima

श्रद्धा जैन ने कहा…

shilash ji aapki is soch ka aadhar nahi samjh saki

ki kya poliyo ki drop namard banati hai ?

kavita achhi hai lekin polio ki drop aur namardi ka sambandh meri samjh main nahi aa paaane ke karan kuch bhi kahne main asamrth hoon

yaha itne badhe badhe diigaz kabhi tairf kar rahe hain to zarur baat main kuch baat hoti lekin main moodh buddhi apne dimag main uthe is sawal ko karne se rok nahi paayi

aapki baat ke is marm ko samjhne ke liye utsuk

Unknown ने कहा…

वाकई आपने कविता के माध्यम से एक अच्छे सामाजिक मुद्दे को उठाया है बधाई

Archana Gangwar ने कहा…

shailesh ji...
aapki kalam hamesha soch ke ek naye dwar ko kholti hai.....
samajh ki choti choti soch bahut bari problem ko janm bhi deti hai....aur vo samjh nahi pate ki samsya ki jur vo khud hai......

apni kalam ko yu hi talwaar ki terah lafzo ki dhaar chalate rahoye

archana

Reetesh Gupta ने कहा…

शैलेष जी,

बहुत ही सच्ची और उतनी ही अच्छी भावनाओं का प्रवाह है

सुनीता शानू ने कहा…

शैलेश जी अब तक इतने सारे लोगो ने टिप्पणी की है कि मेरे पास वाह-वाह करने के सिवाय शब्द ही नही बचे है हाँ इस भ्रम के शिकार बहुत लोगो को पोलिओ जैसी घातक बीमारी के साथ जीना पड़ा,जो ये समझते थे कि दो घूंट पीकर हम नामर्द बन जायेगें,...उन्हे जागृत करने के लिये आपकी कलम ने अच्छा प्रयास किया है,..बहुत-बहुत बधाई।
सुनीता(शानू)

Laxmi ने कहा…

शैलेष जी,

कविता सुन्दर है, सामयिक है और एक महत्वपूर्ण मुद्दे को उठाती है किन्तु जिन लोगों तक आप पहुचना चाहते हैं, उन्हीं पर अनुचित लांछन लगा कर नहीं पहुच सकेंगे। हर मुस्लिम आतंक्वादी नहीं होता। मुझे आपकी निम्न पंक्तियाँ आपत्तिजनक लगीं:

चाहते थे
इतने बच्चे हों
कि जब इस्लाम हो ख़तरे में
तो कर सकें वो ज़ेहाद
फोड़ सकें कुछ बम
जला सकें कुछ बस्तियाँ
ऊँचा करें उनका नाम।

लक्ष्मीनारायण

बेनामी ने कहा…

सभी की भांति मैं भी आपको इस रचना के लिये बधाई देता हूँ शैलेष। रचना एक सामाजिक समस्या से जुडी है सो प्रासंगिक भी है। लेकिन एक बात आपकी कविता में ठीक नहीं लगती। आपकी कविता सभी मुसलमानों को आतंकवाद से बाँधती प्रतीत होती है। कुछ इस्लाम के अनुयायी निस्संदेह ऐसा मानते हैं कि पोलियो ड्रोप्स से उनके बच्चों में नपुंसकता आ सकती है लेकिन ये ज़रूरी नहीं कि वे सभी मुसलमान अपने बच्चों को नपुंसकता से इसलिये बचाना चाहते हैं कि वो बडे होकर बम फोड़ सकें! यह बात कुछ ठीक नहीं। आपकी रचना काव्य की दृष्टि से सुंदर है।

शुभकामनाएँ
ललित कुमार

Pankaj ने कहा…

Shaileshji aapki rachna kamaal hai, kaash isse kuch logon ko kuch seekh mile

Hamri Shubhkamnayen aapke saath hain

बेनामी ने कहा…

bahot sundar bhav hain...bholooo
ji bhar aaya..parh kar.....likhte raho......

बेनामी ने कहा…

शैलेश भाई,रचना बहुत अच्छी है,..आपको बहुत बहुत बधाई। बस इतना ही कहुंगा कि पोलियो ड्रोप दो घूंट नही दो बूंद पिलाई जाती है,..
पवन चोटिया

Pramendra Pratap Singh ने कहा…

शैलेश जी आपकी यह कविता पढ़कर लग रहा है कि आज भी मुस्लिम समाज अपने कठ्मुल्लियत से बाहर नही निकल पाया है।

बिना इस परिधि के बाहर निकले समाज में परिवर्तन सम्‍भव नही है।

Unknown ने कहा…

Shailesh ji,
aapne apni is kavita ke madhyam se vo kadwa sach badi hi saralta se ujagar kar diya hai jo aaj bharat ki tasveer ban chuka hai.The surveys tells that we are world beaters if polio cases are concerned,courtsey these orthodox people who even after so many years of independence are unable to asssociate themselves with the country which has provided them Roti,Kapda aur Makan n also an opportynity to live with dignity.

बेनामी ने कहा…

Shailesh ji,
Sach kahoon to ye baat mai sirf isliye nahin likh raha hoon ki mujhe aapki taareef karni thi....kyonki ye taareef ki haqdar nahin hai....ye vo sach hai jo kisi aankh wale ko bhi nazar nahin aata....aapki is koshish ne sahayad kuch aankh waale andho ko roshni dikhayee hai.....aur is kaam ke liye...tareef bhi chota shabd hai......isliye mai to sirf aapko iske liye badhai dena chahta hoon.....kabool kijiye......

Unknown ने कहा…

Hats off to u!!!
I hav no words simply tell u really nice

बेनामी ने कहा…

समाज का कड़वा सच जिस सरलता से आपने शब्दों में पिरोया है काश उतनी ही सरलता से ये लोग समझ पायें। अपने ही अंश को अशिक्षा, और रूढिवादिता के चलते आखिर कब तक अपंग बनाते रहेंगे। आपकी पंक्तियाँ जागृति पैदा कर सकती है, इन्हें सर्वत्र प्रकाशित करें।

Unknown ने कहा…

really nice peom...it has deep meaning.gud shailesh ji.peom ke end me jakar pata chalta hai ki kyun hota hai yeh sab ...really nice one....sach me yeh comment hai for all the terrorist jo ki desh ko badbaad karne ki sochate hain...:)

दिवाकर मणि ने कहा…

aapki kavita ne is pseudo-secular desh ki nangi sachchaai bataai hai, kuchh isi bhaav ki meri ye panktiya---
यह कविता मैंने 25 सितम्बर 2002
को गुजरात के अक्षरधाम
मंदिर पर आतंकवादियों के
हमले के बाद लिखी थी,जिसमे
बहुत से श्रद्धालु मारे गये
। उनकी याद में समर्पित.......

उन्होनें कहा-
लादेन मरे या बुश, हम दोनों
में खुश.
फिर सुधारा-
ना लादेन मरे ना बुश, लगे
दोनों पर अंकुश.
उनकी बातें सुनकर पूछा
मैनें उनसे
लादेन और बुश की हो रही है
लड़ाई
उसमें हिन्दूओं की क्यों हो
रही है पिसाई ?
आपके पास क्या है इसका जवाब ?
उन्होनें उत्तर दिया-
सरासर गलती तो हिन्दूओं की
हीं है.
क्यों वह समर्थन सच्चाई का
कर रहे हैं ?
तब मैनें पूछा- हे जनाब !
उन निहथ्थे रामसेवकों का
दोष क्या था,
जो जला दिये गये साबरमती की
बोगियों में
मेरी बात सुनकर रहा न गया
उनसे
तमतमा गया चेहरा उनका
बोले,
क्या बात करते हो यार !
क्यों गये थे अयोध्या में
होकर तैयार ?
वो जले तो ठीक हीं जले,
मरे तो ठीक हीं मरे.
यदि कोई हिन्दू मरा तो समझो
कि उसने जरूर हीं कोई गलती
की होगी.
आखिर इस धर्मनिरपेक्ष देश
में,
क्या अल्पसंख्यकों को यह भी
नहीं है अधिकार
कि वो मार सकें काफिरों को
बार-बार.
वो तो अपने धर्म पर हैं अडिग.
उनका तो धर्म कहता है-
जो तेरी राह में हो पड़े,
उन्हे मारकर बनो तगड़े (गाज़ी).
उन्होनें तो केवल अपना काम
किया
नाहक हीं उनको तुमने बदनाम
किया.
जरा-सा रूक कर पूछा उन्होनें
मुझसे-
बताओ श्रीमान् !
ये संघी क्यों लगाते हैं
साम्प्रदायिक आग,
हिन्दूओं को ये क्यों
भड़काते हैं
क्यों उन्हें जागृति का पाठ
पढ़ाते हैं ?
ये तो सो रहे थे, नाहक हीं
उन्हे जगा दिया.
अरे ! हिन्दूओं का तो काम ही
है सहना
और बार-बार मरना.
ये लोग भी कोई लोग हैं,
आज मर-कट रहे हैं तो हो रहा है
हल्ला.
इतना सुनकर रहा न गया मुझसे
मैनें कहा-
धन्य हो मेरे भाई
तुम्हारे रहते अन्य कौन बन
सकता है कसाई.
हमें मरने के लिये तो आप
जैसे धर्मनिरपेक्ष हीं
काफी हैं
हम तो आपके गाफिल हैं.
अब वह दिन दूर नहीं,
जब आप जैसों के अनथक प्रयास
से
ये अपाहिज-कायर हिन्दू मिट
जायेंगे जहाँ से
मैं तो बेकार हीं कोस रहा था
आपके प्यारों को
अरे ! आपके सामने उनकी क्या
औकात है ?
ये सब घटनायें तो आप जैसों
की सौगात है.

Vinni ने कहा…

what can i sy abt this poem..
but i think that it is danger to comment on any caste..i m not a poet but i can understand what is going now..u all will express it but plzzz think from social side too..
best of luck u all

divya ने कहा…

bahut hi satik lagi aapki ye kavita....jaagrukta aise vishay me honi hi chahiye....parantu hai nahin....ye niraksharta ke kaaran bhi hai...is ek samasya me kitni samasyayen chupi hai....ubhar kar aati hai....aap samsamyik vishayon par kalam chalate hai....dhero badhaiyan