सोमवार, 19 मार्च 2007

जब पहली बार मैंने ग़ज़ल लिखी

जैसा कि आपलोग अब तक मुझे पढ़ते आये हैं, जिससे ऐसा प्रतीत होता होगा कि मैंने मात्र अतुकान्त कविताएँ ही लिखी है। मैं अपने हॉस्टेल में भी इस कारण दोस्तों की आलोचनाएँ सुनता रहा। फिर पिछले वर्ष प्रथम बार मैंने कुछ तुकान्त लिखने का प्रयास किया। अब मालूम नहीं कि इसने ग़ज़ल का रूप लिया है या किसी और छन्द का? आपलोग ही तय करें, और मार्गदर्शन दें।


आँखें पथराई सी


जो तू आई कल शाम, मेरे आशियाने में,
मैंने अब तक रात को सुबह होने न दिया।

तेल के दीये तो कब के बुझ चुके होते
मगर खून-ए-जिगर ने उन्हें बुझने न दिया।

हुस्न वालों ने लगा रखी है इक आग बेवफ़ाई की
झूलसा तो हूँ मगर वफ़ा-ए-यार को जलने न दिया।

इन राहों ने निगले हैं कई रहगुजर
बना लिया हूँ घर इस पहाड़ी पर
किसी खूनी रास्ते को घर से गुजरने न दिया।

इन किताबों ने ज़ुदा किये हैं, हमको अपनों से
जब भी दादा ने उठाई कलम, कुछ लिखने न दिया।

रोज़ करते हैं फ़ोन पर वादा, वो आयेंगे हमारी मय्यत पर
पथरा गई हैं आँखें, मगर 'शैलेश" उन्हें झपकने न दिया।


लेखन-तिथि- २३ फ़रवरी २००६ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६२ फाल्गुन कृष्ण पक्ष की दशमी।

8 टिप्‍पणियां:

राजीव रंजन प्रसाद ने कहा…

आप रुस्तम हैं लेकिन छुपे हुए। तुकांत रचना का अच्छा प्रयास। और निश्चित ही सुन्दर भावार्थ निहित हैं..

*** राजीव रंजन प्रसाद

SahityaShilpi ने कहा…

बहुत खूब शैलेश भाई। मैं राजीव जी से पूरी तरह सहमत हूँ। आप सचमुच छुपे रुस्तम निकले। हालाँकि ग़ज़ल के लिहाज से कुछ कमियाँ नजर आती हैं पर पहली बार में तो सब कुछ ठीक नहीं हो सकता न। सो कोशिश करते रहिये, ये कमियाँ भी जल्द दूर हो जाएँगीं।

योगेश समदर्शी ने कहा…

बात मुझे तो कुछ समझ नही आई

Mohinder56 ने कहा…

गजल तो एकदम दुरस्त है... मगर अन्त में आपन एक सीरियस गजल को हास्य का जामा पहना दिया

बेनामी ने कहा…

वाह! सुन्दर प्रयास है.

भविष्य में भी इस प्रकार की तुकांत रचनाएँ प्रस्तुत करते रहियेगा।

princcess ने कहा…

इन राहों ने निगले हैं कई रहगुजर
बना लिया हूँ घर इस पहाड़ी पर
किसी खूनी रास्ते को घर से गुजरने न दिया।
,,,,
sundar bhaav

रंजू भाटिया ने कहा…

तेल के दीये तो कब के बुझ चुके होते
मगर खून-ए-जिगर ने उन्हें बुझने न दिया।

सुन्दर प्रयास है.

बेनामी ने कहा…

बकवास है गुङिया भीतर गुङिया आत्मकथा, नकली और गढी हुई। मैत्रेयी का मुखौटा नोचना होगा। यह सखि भाव की बात करती है यादव जैसे वुमेनाइजर के साथ? मंच पर से प्रेमी की बात करती यह बदसूरत मगर रंगीली बुढिया। इसे प्रेम सेक्स में स्त्री मुक्ती नजर आती है। गांव की मेहनतकश औरतों को गलत तरह से पेश करती है।
चालाक लोमडी की नकली और गढी हुई आत्मकथा, यह पढने लायक नहीं है।