मैं नहीं मरूँगा
राजीव के शरीर में
हल्दी सजाई जा रही है
शायद हरिद्र सा तन
इसीलिए हो रहा है
भिन्न-भिन्न स्त्रियों के
मर्दन से
सम्भवतः अंग-अंग
व्यवस्थित हो चुका है
बाईस वसंत से वो
इसकी प्रतिक्षा कर रहा था
मन में कुछ इस तरह के
ख्याल आ रहे हैं कि
जरूर उसका भी
हल्दी-चंदन लेपन हो रहा होगा
जब मुझे अंतःखिलखिलाहट हो रही है
तो यह प्रत्यय अनुचित नहीं
अभी तो बहुत से नये
कार्यों का सम्पादन शेष है
माण्डपाच्छादन, पाणिग्रहण
फिर सुहागरात
रोम-रोम संवेदित होता है
विचार करके
आँगन में किलकारियाँ मारते
दो छोटे-छोटे शिशु
जब उनकों समझा-समझा कर
परेशान हो जायेगी
तो कुछ देर में
मेरे पास आकर कहेगी-
"लो सम्भालों इनको
जब पैदा किया है
सम्भालेगा कौन?"
कितना रोमांचित होता है मन
यह सोचकर
अचानक कमल वृद्ध हो चला है
गाल पिचक गये हैं
समस्त कान्ति छीन ली है
काल ने
फिर भी यह मोह, यह माया
इतने से ही काम चला सकती है
संगीनी की मीठी कोयल जैसी बोली
अब दबी खासियों में तब्दील हो गयी है
दोनों एक-दूसरे को देख कर जी लेते हैं
दमे की दम तोड़ती उच्छवास में
मीठी धुन सुनाई पड़ती है
रोज रात नीरज बुढिया के माथे की जाँच करता है
कहीं ठण्डी तो नहीं हो गई
जब विश्वास होता है कि
अभी जीवित है
तो मन मयूर नाच उठता है
उसे पूर्ण विश्वास है कि
जब तक मैं हूँ
यह मुझे छोड़कर कैसे जा सकती है
इसके आगे पंकज कुछ सोच नहीं पाता
क्योंकि
इसके आगे की दुनिया नश्वर है
फिर अरविन्द वर्तमान में ही
लौटना श्रेयकर समझता है
सोचता है कि क्या
मृत्यु उसकी भी सुनिश्चित है
होगी
जब होगी तब देखा जायेगा
अभी तो वह पल बहुत दूर है
अभी तो हल्दी लेपन हो रहा है
और बहुत कुछ है सोचने को
क्या ऐसा आपके साथ भी होता है?
(अपने प्रिय मित्र राजीव के विवाह की खबर पाने के बाद)
लेखन-तिथिः दिनांक २४ दिसम्बर २००३ तद्नुसार विक्रम संवत् २०६० पौष शुक्ल पक्ष प्रथमा
5 टिप्पणियां:
बहुत अच्छा है प्रयास, शैलेश भाई, बधाई.
समीर लाल
शैलेश, बहुत अच्छे भाव प्रस्तुत किये है |
शैलेश जी;
शब्दों मे पंख लगाना इतना जल्दी सीख गये... ! ! मैं अपने हृदय की गहराईयों से कामना करता हूँ कि आप ऐसे ही शब्दों को पंख लगाकर उसे नए ऊँचाईयों तक ले जाएँ और उसे नए आयाम दें. कहते हैं साहित्य सृजन का यही एक पारम्परिक विधा (तकनीक) है. वैसे मैं जानना चाहूँगा आप ऊत्तर-प्रदेश के कौन से हिस्से के रहने वाले हैं. समय मिले तो कृपया इस
वेबसाईट का भी दौरा करें .
जीवन के हर चरण की अपनी ही अपेक्षाएं होती है, और मनुष्य भी इनकी गवेषणाओं में स्वयं को व्यस्त कर लेता है, यही भाव दर्शाती आपकी यह कविता यथार्थ के करीब है.
-श्रीमती आहूजा.
kavita to bahut mast hai. lekin aap mera comment aap apni kavita nark ka sabut par jaroor padhiye.
एक टिप्पणी भेजें