मंगलवार, 12 सितंबर 2006

ना रहे उजाला

हर रात निगलता रहा है
चाँद अँधेरों को,
धरा के कुछ टुकड़े को
आलोकित करता रहा है वो।
भूभाग पर सिमटा उनका
अस्तित्व
कुछ पल के लिए ही सही
सकून देता रहा है
खानाबदोशों को।
पर यह चाँद
कहाँ लेने देता है
संतोष की साँस!
आकाश का सीना चीरते घर
हमेशा से उसकी आँखों में
चुभते रहे हैं।
इंतज़ार में रहता है
उन रातों की
जब रात के पास तनहाई हो।
ताकि कुछ समय के लिए
भूल जाये सबकुछ
ना रहे उजाला
ना दीख पाये भविष्य
ना ही स्मृति-चिन्ह
भूत का।
सो सके अपनी महबूबा के साये में।
महसूस कर सके
वही है इस धरा की अप्सरा,
रोशनी का एक भी क़तरा
ना रहे उनके बीच।
आते-जाते लोगों की नज़रें
ना घूर सके
उनके अस्तित्व को।
सिमट जाये सब कुछ
अँधेरों की तरह।
ताकि जब फिर से चाँद आये
तो वो भी अपना अस्तित्व
लुटा दे रात्रि में।


लेखन-तिथि- दिनांक १२ अगस्त २००४ तद्‌नुसार विक्म संवत् २०६१ श्रावण (द्वि॰) कृष्ण पक्ष की द्वादशी।

1 टिप्पणी:

रंजू भाटिया ने कहा…

सो सके अपनी महबूबा के साये में।
महसूस कर सके
वही है इस धरा की अप्सरा,
रोशनी का एक भी क़तरा
ना रहे उनके बीच।
आते-जाते लोगों की नज़रें
ना घूर सके
उनके अस्तित्व को।
सिमट जाये सब कुछ
अँधेरों की तरह।
ताकि जब फिर से चाँद आये
तो वो भी अपना अस्तित्व
लुटा दे रात्रि में।

bahut hi khubsuart ehsaas mein dhali hai yah kavita [:)]