रविवार, 29 अक्टूबर 2006

प्रेम-पुष्प-४

प्रिये,
कल रात एक सपना देखा
देखा तुम उतर रही हो आसमान से
पंखों के आसन पर बैठी हो तुम
हाथ में केवल आशीर्वाद है
शायद वह 'क्रिसमस' का दिन था
मैं दौड़ने लगा था इधर-उधर
कहाँ से लाऊँ फूल
कहाँ से लाऊँ सुगन्ध
कहाँ से लाऊँ स्वागत-मालिका
किस-किस को बुलाऊँ
किसको ना बुलाऊँ?
जी तो करता है
सारे जमाने को जगा दूँ
दिखा दूँ अपने यार को
सिद्ध कर दूँ अपना चुनाव।
-----देखा
मेरे गाँव के बच्चे
कूदने लगे थे तुम्हारे आस-पास
किसी को गुड्डा
किसी को हाथी, किसी को शेर
तो किसी को मिठाई
सब को कुछ ना कुछ मिल रहा था
मैं खड़ा था चुपचाप
मैं केवल देख सकता था
मुझे मालुम था मुझे कुछ
नहीं है मिलने वाला
क्योंकि मैं सपने में था।


लेखन-तिथि- १२ दिसम्बर २००४ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६१ मार्गशीर्ष की अमावस्या।

बुधवार, 11 अक्टूबर 2006

प्रेम-पुष्प-३

प्रिये,
नहीं समझ पाता मैं
रिश्तों का समीकरण
सम्बन्धों की तीव्रता
बस मिलते जाते हैं संयोग
बदलता जाता है सबकुछ
चला जा रहा था
न जाने किस दिशा में
मिल गयी चौराहे पर खड़ी तुम
दिखा दिया मार्ग
चमकने लगे भविष्य-चिन्ह
अब न अंधेरों का साम्राज्य है
और न कोई आवरण
हो गया है सुगम्य प्रत्येक साध्य
संसार एक आवृत्त था
बन गया है व्यास वो भी परिधि से
हो गया है उपजाऊ ह्रदय का सम्पूर्ण क्षेत्र
आवश्यक और अनावश्यक
सबको मिलने लगा है उर्वरक
कुछ पौधौं में फल भी लगे हैं
परन्तु डर लगता है क्योंकि
फल पक के गिरते भी हैं
नीचे की तरफ।


लेखन-तिथि- ३ दिसम्बर २००४ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६१ मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की षष्ठी।

मंगलवार, 26 सितंबर 2006

प्रेम-पुष्प-२

प्रिये,
कभी देखा है तुमने
सूखते हुये घास
और मुरझाते हुये प्रभात को
कितने बेवस नज़र आते हैं वे
समझ लो वही हो गया हूँ आजकल
कहते हैं न- दीये में तेल डालते ही
उसके जलने की तमन्ना और बढ़ जाती है
मेरी भी आरज़ूयें बढ़ने लगी हैं
नहीं सोच पाता क्या होगा अंजाम
कब गिरेंगी दीवारें
कब बनेगा संगमरमरी ताजमहल
कब जायेगी सड़क दिल के इस छोर से
उस छोर तक
मैं तो चल पड़ा हूँ
इस राह में तुम्हारे सहारे
बहुत से चौराहों को लाँघ भी लिया है
न जाने इतना साहस कहाँ से आ गया है
लोग ठीक कहते थे
किसी का साथ हो तो
-------
सागर की सीमा
आकाश की ऊँचाई
और पाताल की गहराई
भी नापी जा सकती है
लड़खड़ाने लगे हैं कदम मेरे
पर इस डगमगाहट में भी मज़ा है
प्रयास करता हूँ न देखूँ स्वप्न
न जाऊँ समय से आगे
पकड़ा रहूँ हाथ वास्तविकता का
पर रहता है कहाँ होश
कहाँ दबते हैं ज़ज्बात
अब तो शाम-ओ-सहर
यादों की दरिया में गोता लगा रहा हूँ
कभी डूबता भी हूँ
और कभी उतरता भी हूँ
शायद तुम तिनकों की मानिन्द
बहती रहती हो, बहती रहती हो
ताकि जब मैं डूबने लगूँ
तो तुम मुझे उबार सको।


लेखन-तिथि- २६ नवम्बर २००४ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६१ कार्तिक मास की पूर्णिमा।

मंगलवार, 19 सितंबर 2006

प्रेम-पुष्प

प्रिये,
असमंजस में डाल दिया है तुमने,
इतना आसान नहीं है
भावनाओं को शब्दों में पिरोना
इतना सरल नहीं है
उड़ते बादलों को पकड़ना।
बस इतना जा लो
मन कहीं नहीं लगता आजकल
कभी तितली, कभी झरने की तरह
इठलाता रहता है इधर-उधर।
बदल गयी है दुनिया मेरी
अब कुछ पुराना नहीं लगता
जीवन को गति मिल गयी है।
कहते हैं ना मंजिल तक पहुँचना
आसान हो जाता है
जब हमराह साथ में हो।
बस इतना जा लो
नहीं रहा कुछ भी मेरा
छोड़ दिया है सबकुछ
लम्हों के आसरे।
शायद सिमट गया है
सम्पूर्ण अस्तित्व तुम्हारे में ही
बढ़ गया है श्वासों का त्वरण
घटने लगी है दर्शन की गहराई।
देखने लगा हूँ सपने
करने लगा हूँ प्रयत्न
कि कर सकूँ साकार।
हटा दिया है प्रत्येक आवरण
खोल दी है दिल की किताब
सालों की मैल थी उनपर
फेरने लगा हूँ उँगलियाँ।
अब नहीं ज़रूरत समझता
मकड़ी के जालों का घर में
क्योंकि मिल गया है कवच
अटूट, अविखण्डित तुम्हारे जैसा।
नहीं डर लगता मर जाने से॰॰॰॰॰
और कुछ जानना है तो
महसूस करो दिल की धड़कनें
पावोगी॰॰॰॰॰॰॰॰॰
कि सबकुछ तुम्हारा है।


लेखन-तिथि- दिनांक ८ नवम्बर २००४ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६१ कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी।

मंगलवार, 12 सितंबर 2006

ना रहे उजाला

हर रात निगलता रहा है
चाँद अँधेरों को,
धरा के कुछ टुकड़े को
आलोकित करता रहा है वो।
भूभाग पर सिमटा उनका
अस्तित्व
कुछ पल के लिए ही सही
सकून देता रहा है
खानाबदोशों को।
पर यह चाँद
कहाँ लेने देता है
संतोष की साँस!
आकाश का सीना चीरते घर
हमेशा से उसकी आँखों में
चुभते रहे हैं।
इंतज़ार में रहता है
उन रातों की
जब रात के पास तनहाई हो।
ताकि कुछ समय के लिए
भूल जाये सबकुछ
ना रहे उजाला
ना दीख पाये भविष्य
ना ही स्मृति-चिन्ह
भूत का।
सो सके अपनी महबूबा के साये में।
महसूस कर सके
वही है इस धरा की अप्सरा,
रोशनी का एक भी क़तरा
ना रहे उनके बीच।
आते-जाते लोगों की नज़रें
ना घूर सके
उनके अस्तित्व को।
सिमट जाये सब कुछ
अँधेरों की तरह।
ताकि जब फिर से चाँद आये
तो वो भी अपना अस्तित्व
लुटा दे रात्रि में।


लेखन-तिथि- दिनांक १२ अगस्त २००४ तद्‌नुसार विक्म संवत् २०६१ श्रावण (द्वि॰) कृष्ण पक्ष की द्वादशी।

बुधवार, 26 जुलाई 2006

फ़ितरत

लगता है नहीं बदल पायेगी
सूरत इस जहाँ की,
बहुत बार कोशिशे हुयी हैं
क्या हुआ?
अब तक,
हर तरफ अंधेरा लिये
उजाला भटक रहा है।
चंद लोगों का अपूर्ण हठ,
अपूर्ण साहस,
अपूर्ण प्रयास,
कुछ नहीं कर पाया है अब तक।
हमेशा से लोग कहते आये हैं
कब तक चलेगा ऐसा?
शायद कहते ही रह जायेंगे।
कौन कहता है कि
दुनिया में गति नहीं है?
ऐसे क्या धीरे चल रहा है?
नहीं ना
तो चलने दो
इसे ऐसे ही।
पर क्या करें?
फ़ितरत नहीं बदलती कुछ लोगों की।

रचनाकाल- १० अगस्त २००४ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६१ श्रावण (द्वि॰)कृष्ण पक्ष की दशमी।

सोमवार, 10 जुलाई 2006

आखिर कब?

निरंतर प्रयत्न करता रहा हूँ मैं
हमेशा हारा हूँ।
पर कहते हैं कि
उम्मीद पर दुनिया कायम है।
लड़ना मेरी फ़ितरत नहीं
पर जूझता रहा उम्रभर।
काश कि जीत पाता
काल को!
दादा कहा करते थे
आदमी कुछ भी कर सकता है।
कहीं ऐसा तो नहीं
वे भी सुनी-सुनायी बातें दुहराते थे?
यदि नहीं
तो क्या मेरी उम्र छोटी है?
फिर कहाँ से लाऊँ और दिन!
अतीत से खींचना पड़ेगा
उनको
पर विज्ञान अभी
कहाँ कर पाया है।
विश्वास है मुझको
हो पायेगा
समय को आगे-पीछे खींचना।
तो भी------
क्या मनुष्य को सन्तुष्टि मिल पायेगी?


लेखन तिथिः ०३ अगस्त २००४ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६१ श्रावण (द्वि॰) कृष्ण पक्ष की तृतीया

शनिवार, 24 जून 2006

अलग पहचान

आज उसकी बातों से
फिर काँपा था मन,
जब से पत्र पढ़ा है
मन कहीं नहीं ठहरा।
क्या जबाब दूँ उसके
सवालों का?
कैसे समझाऊँ उसे
कि उतना ही व्यथित मैं हूँ!
क्या करूँ मैं ऐसा
जिससे वो अतरंगित हो जाये!
कुछ नहीं कर सकता मैं
ऐसा लगता है
कि बस
दरिया के किनारे खड़ा होकर
लहरों का हलचल देख सकता हूँ।
बस देख रहा हूँ कि
वे अब द्वीप पर चमकते पत्थरों
को अपने रंग में रंग रही हैं।
देख सकता हूँ बस इतना कि
रेतों पर पड़ी कश्तियों को भी
अपने में समाहित कर रही हैं।
लेकिन मैं कैसे कह सकता हूँ
कि मैं यह सब देख रहा हूँ?
अरे! उसे समझना चाहिए
पानी सर के ऊपर आ चुका है।
बस मैं निकलने के लिए
हाथ पैर मार रहा हूँ।
निकल नहीं पाऊँगा
इसलिए
सुनी-सुनायी बातें बताकर,
सुनाकर,
अपने में सिमटकर,
भय को भगा रहा हूँ।
कैसे बताऊँ उसे
मैं भी तो डर गया हूँ,
या यह कहूँ कि मर गया हूँ।
अरे, इतिहास तो मैंने भी पढ़ा था
हाँ, कुछ वैसा ही मैंने भी अनुभव किया था।
अपने से ही मैंने भी पूछा था
"क्या मैं नया भारत देख पाऊँगा?"
तब से बस इंतज़ार ही कर रहा हूँ।
यह सत्य है कि मैं खुद
कुछ नहीं कर रहा हूँ।
बस सोचे जा रहा हूँ
कि सबसे अलग एक पहचान बनाऊँगा।
बना भी लिया है
तभी तो दुनिया कहती है
न जाने कब से
'इसने' अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं किया
और कहता है
मरते दम तक शायद
यह उससे नहीं हो पायेगा।

(अपने प्रिय मित्र मनीष 'वंदेमातरम्' का पत्र पाने के बाद)

लेखन तिथिः १४ फरवरी २००४ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६० फाल्गुन कृष्ण पक्ष की नवमी।

मंगलवार, 13 जून 2006

रति और काम

कब से लड़ रहे थे वे दोनों
कोई किसी से कम नहीं था
जो लोग घरों से बाहर थे
उनका झगड़ना देख भी पा रहे थे।
वैसे संकेत सुलभ थे
पर व्यक्ति का स्वार्थ
कहाँ देख पाता है सबकुछ!
रति और काम को इनसे क्या मतलब
अरे! ये हों ना हों
उनके कार्य का प्रयोजन नहीं खत्म होता
झगड़ा करते हैं वे दोनों
और
अनुकूल बनते हैं उनके लिये
झगड़ते हैं तो बदरी भरा आकाश आनन्द देता है
और जब इनका सर्वश्व नष्ट होता है
तो वर्षा ऋतु आती है।
कामः "कितना अच्छा है ना देवि!
ईश्वर हमारे कार्य से प्रसन्न होकर
शंखनाद के उपरान्त
मृदुजल को स्वाहा कर रहे हैं"
रतिः "हाँ स्मर! अब इसी के लिये
परमेश्वर ने भेजा है, तो उन्हें करना तो पड़ेगा ही"
कामः "चलो,पुनरायोजन करें, देखो!
नभ कितना स्वच्छ हो चला है,
सम्भवतः हमारा स्वागत करने आया है चाँद"
रतिः " हाँ मयन, देखो ना हमें देखकर तारे किस तरह
मुस्कुरा रहे हैं"
कामः "कल देखा था तुमने?
सुबह-सुबह
अरूणदेव हम में नयी स्फूर्ति जगाने के लिये
समय से पहले निकल आये थे"
रतिः "हाँ, सब ठीक रहा तो
हमारे वंशज इस जगत पर राज करेंगे"
कामः " हाँ, विलम्ब ना करो तो अच्छा है
अतिशीघ्र प्रस्तुत हो जाओ"
एक नव अनुकूल आयोजन हो चला है
धीमी-धीमी वर्षा ऋतु की फुहार
ऊर्जाहीन हो चले हैं दोनों
मेघों के पास भी कुछ नहीं बचा लुटाने को।


लेखन तिथिः १८ अगस्त २००४

बुधवार, 7 जून 2006

सिगरेट

सिगरेट!
कुंठे की चिमनी
जलती-बुझती चिंगारी
निगलती जाती है सबकुछ
बड़वानल के सादृश्य
उसके पास भी अब बहुत कुछ
नहीं बचा
कितने दिन हुये
इस भस्म से दोस्ती के!
क्या साथ देती है
अपने में समाहित करके!
जब से मिली है
रूतबा बन गया है
समाज में
लोगों की दया
मुफ़त में मिलती है
वो समझता था सबमें स्वार्थ है
पर वो गलत था वो
क्या कोई
सिगरेट को स्वार्थी कह सकता है!


लेखन तिथिः ६ जून २००४

शनिवार, 6 मई 2006

जीने नहीं देते वो

कल रात
फिर से आ घिरा था
उनके बीच
आँख मिचौली खेल रहे थे
वे
अचानक कँपकँपा गया था मन
सोचा
प्रकाश कर दूँ कमरे में
अभी उठकर पकड़ लूँगा उनको
पर वैसे ही पड़ा रहा
क्योंकि जानता था
प्रकाश की एक किरण भी
मेरी परेशानी बढ़ायेगी
भूत में
ऐसे कई प्रयास कर चुका था मैं
यह जानते हुये कि
प्रकाश होते ही
वे मेरे ही रूह में बैठ जायेंगे
---------
पता नहीं कब चैन लेने देंगे
ये अंधेरे!
शायद----- शायद
तब
जब अंतर एवम् बाहरदोनों प्रकाशित होगा
पर---- कब
शायद अंतिम श्वास की घड़ी तक
यह सम्भव नहीं हो सकेगा।

लेखन-तिथिः ३० मई २००४

रविवार, 30 अप्रैल 2006

नर्क का सबूत

ढाई मीटर का था वो
कम से कम
जिंदा कहे जाने की हलचल
खो चुका था
घिरा था लाखों के बीच
अस्तित्व मिटा रहे थे
वे उसका
क्या दोष था उसका
यही कि?
चला जा रहा था चुपचाप!
पर जीने का यह कायदा नहीं है
आ गयें थे
भालें, बरछें, पत्थर और बन्दूक
लोगों की हाथों में
बरस पड़ा था उसपर
सबकुछ
उसके बाद कीड़ों का साम्राज्य
सेंध लगा गया था
कहते हैं कि
पाप की सज़ा
कीड़े पड़ना जैसा है
एक दिन और गुजरा
-कंकाल छोड़ गया था
नर्क का जीता-जागता सबूत!

(अपने गाँव में एक साँप की हत्या के उपरान्त)

लेखन-तिथिः दिनांक ३ अगस्त २००४ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६१ श्रावण (द्वि॰) कृष्ण पक्ष की तृतीया

शुक्रवार, 21 अप्रैल 2006

मैं नहीं मरूँगा

राजीव के शरीर में
हल्दी सजाई जा रही है
शायद हरिद्र सा तन
इसीलिए हो रहा है
भिन्न-भिन्न स्त्रियों के
मर्दन से
सम्भवतः अंग-अंग
व्यवस्थित हो चुका है
बाईस वसंत से वो
इसकी प्रतिक्षा कर रहा था
मन में कुछ इस तरह के
ख्याल आ रहे हैं कि
जरूर उसका भी
हल्दी-चंदन लेपन हो रहा होगा
जब मुझे अंतःखिलखिलाहट हो रही है
तो यह प्रत्यय अनुचित नहीं
अभी तो बहुत से नये
कार्यों का सम्पादन शेष है
माण्डपाच्छादन, पाणिग्रहण
फिर सुहागरात
रोम-रोम संवेदित होता है
विचार करके
आँगन में किलकारियाँ मारते
दो छोटे-छोटे शिशु
जब उनकों समझा-समझा कर
परेशान हो जायेगी
तो कुछ देर में
मेरे पास आकर कहेगी-
"लो सम्भालों इनको
जब पैदा किया है
सम्भालेगा कौन?"
कितना रोमांचित होता है मन
यह सोचकर

अचानक कमल वृद्ध हो चला है
गाल पिचक गये हैं
समस्त कान्ति छीन ली है
काल ने
फिर भी यह मोह, यह माया
इतने से ही काम चला सकती है
संगीनी की मीठी कोयल जैसी बोली
अब दबी खासियों में तब्दील हो गयी है
दोनों एक-दूसरे को देख कर जी लेते हैं
दमे की दम तोड़ती उच्छवास में
मीठी धुन सुनाई पड़ती है
रोज रात नीरज बुढिया के माथे की जाँच करता है
कहीं ठण्डी तो नहीं हो गई
जब विश्वास होता है कि
अभी जीवित है
तो मन मयूर नाच उठता है
उसे पूर्ण विश्वास है कि
जब तक मैं हूँ
यह मुझे छोड़कर कैसे जा सकती है
इसके आगे पंकज कुछ सोच नहीं पाता
क्योंकि
इसके आगे की दुनिया नश्वर है
फिर अरविन्द वर्तमान में ही
लौटना श्रेयकर समझता है
सोचता है कि क्या
मृत्यु उसकी भी सुनिश्चित है
होगी
जब होगी तब देखा जायेगा
अभी तो वह पल बहुत दूर है
अभी तो हल्दी लेपन हो रहा है
और बहुत कुछ है सोचने को

क्या ऐसा आपके साथ भी होता है?

(अपने प्रिय मित्र राजीव के विवाह की खबर पाने के बाद)

लेखन-तिथिः दिनांक २४ दिसम्बर २००३ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६० पौष शुक्ल पक्ष प्रथमा

शनिवार, 8 अप्रैल 2006

दास्तान-ए-मुहब्बत

एक दिन अचानक
क्षितिज के उस पार
तेरा कांत रूप दिखा था मुझे।
मैं दौड़ा था तुम्हें रोकने के लिये
अपना अवलम्ब बचाने के लिये।
पर काल के वायु-वृत ने
अपने आगोश में भर लिया था
और फेंक दिया था
क्षितिज के दूसरे किनारे पर।
फिर भी हिम्मत नहीं हारा था
चलता चला था तुम्हारी खोज में
पर जब उस छोर पर पहुँचा
तो इस छोर पर नज़र आई थी तुम।
बैठकर खूब रोया
मंदिरों में जाकर उपासना भी की
पर काल ने मेरी एक ना सुनी
तुम जा चुकी थी अज्ञात शांतवन में।
इस निरीह कुंज में
मैं अकेला रह गया था।
समय के आशुवत् परिवर्तन ने
बहुतों को छीन लिया था मुझसे।
कोई लक्ष्य नहीं, कोई उमंग नहीं
बिन पतवार की नौका की भाँति
लगता रहा था
इस कगार से उस कगार पर।
सहसा गर्जना हुई थी
आकाशतल में
तारे और नक्षत्रवृंदों का समूह
चमकने लगे थे दिन में ही।
यह कैसा दिवस था
मैं कुछ सोच नहीं पा रहा था
हिमालय को बींधते
उल्कापिडों का अग्निवर्तन
विंध्य के जलप्रपातों का
उल्टा (उलटा) प्रवाह।
विज्ञान के सारे सिद्धांत
या ये कहें प्रकृति के जड़वत् नियम
क्या सही, क्या गलत
कुछ निर्धारित करना मुश्किल था।
भास्कर के अविखंडित प्रकाश में
तुम्हार नूर नज़र आया था।
मैंने लपकना चाहा था तुमको
तो देखा वास्तव में
मैं तुम्हारी ओर आ रहा हूँ।
पक्षियों की तरह उड़ते-उड़ते
जब मैं तुम्हारे पास पहुँचा
तो बहुत खुश हुआ था
क्योंकि मैंने अपनी मंजिल पा ली थी
जी कर ना सही मरकर।

लेखन तिथिः १२ दिसम्बर २००३ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६० पौष कृष्ण पक्ष की चतुर्थी

रविवार, 2 अप्रैल 2006

हे भगवान! मुझे कुत्ता मत बनाना

भागा जा रहा था वो
पग-पग पर खून के धब्बे छोड़ते हुए
पीछे थे खून के प्यासे
देखता जा रहा था इधर-उधर
आखों में दया की भीख थी
शायद कोई दिख जाए राम या रहीम
शायद कहीं उतर आये ख़ुदा
बचा ले उसको दरिन्दों से
पर नहीं था वो मनुष्य
बेचारा कुत्ता!
क्या जाने वो
परमात्मा ने हमेशा लिया है अवतार
मनुष्यों के लिये
काश कि पढ़ा होता वो भी
गीता और कुरान
मालूम होती उसे बाइबिल की सीमाएँ
हमेशा अस्तित्व का खतरा हुआ है
इंसान को
कुत्तों के भविष्य में इससे बढ़कर कुछ नहीं
दिखाऒ हमेशा वफ़ादारी एक बेईमान को
करते रहो रखवाली आश्रयदाता की
नहीं करोगे तो जाओगे कहाँ
है सीमित
तुम्हारे लिये इस धरा की जमीन
"हे भगवान!
बना दे इस बार मुझे भी मनुष्य
ताकि मिटा सकूँ ये विडम्नायें
खत्म कर दूँ असमानतायें"
सहसा लड़खड़ा गया वो
क्या कोई अपशब्द कहा था उसने
शायद-------
देखना बन्द कर दिया था इधर-उधर
दौड़ते-दौड़ते पहुँच गया था
दूसरी दुनिया में
हो सकता मिला हो सकूँ उसे वहाँ।।।


लेखन तिथिः २९ अगस्त २००४ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६१ श्रावण मास (द्वि॰) शुक्ल पक्ष की द्वादशी