सोमवार, 29 जनवरी 2007

विधाता बहुत कर्मजला है

रोज़ रात
माँ फ़ोन पर पूछती है-
बेटा!
खाना खा लिया?
ये जानते हुये भी
कि मैं कैसे भूखा रह सकता हूँ!
नौकरी है जब साथ में,

पर माँ से
कभी यह भी नहीं कह सका
माँ!
कुछ आदमी जैसे जानवर
मेरे घर के चारदीवारी के बाहर
भि सोते हैं,
भूखे और नंगे।
कई बार
उन्हें किसी अमीर घर की
रोटी भी मिल जाती है
या सड़ी हुयी दाल।

माँ!
उनकी माँएँ भी तो नहीं हैं
जो प्यार खिलाती हैं
प्यार पिलाती हैं
और प्यार पर सुलाती हैं।
उनके माँओं का
भाग्य ही ऐसा है
गर्भवती हुयीं
तो मरना निश्चित।
अरे, मरना तो पड़ेगा ही
नहीं तो अपने लल्लों
के लिए
रोटी का हक माँगने लगेंगी
क्योंकि उन्हें कौन रोक सकता है?

माँ!
विधाता सब जानता है,
इसलिए तो
खतरे को उपजने
ही नहीं देता।

माँ!
बिरजू को जानती हो ना?
वही, जब तुम शहर आयी थी
दयालु होकर
एक रूपया दे दिया था उसे।
उसकी माँ उसको
नहीं जनना चाहती थी
सल्फ़ास भी खाया
पेट साफ करने के लिए
पर
यह विधाता
माँ!
बहुत कर्मजला है।
बिरजू
गर्भ फाड़कर निकल आया।


लेखन-तिथि- १३ सितम्बर २००५ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६२ भाद्रपद्र शुक्ल दशमी।

सोमवार, 1 जनवरी 2007

सीसे की भीत

नये वर्ष का मधुर संगीत
जैसे कर्णप्रिय गीत
जैसे मन का मीत
वृद्धों का अतीत
तेरी-मेरी प्रीत
जैसे सत्य की जीत
जैसे प्रेम की रीत
जैसे शिशिर की शीत

नाचो-गाओ, धूम मचाओ
कहीं ये पल जाये ना बीत।

आपस में खुशियाँ बाँटो
राहों के सारे काँटे छाँटो
कहीं मीत को काँटा लगा
ह्रदय में कहीं आह जगा
ह्रदय मेरा द्रवित होगा
कुछ ऐसा अजीब घटित होगा
काँच की तरह विघटित होगा

क्योंकि दिल है मेरा
सीसे की भीत, सीसे की भीत।।

लेखन-तिथि- २ जनवरी २००३ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०५९ पौष मास की अमावस।

मंगलवार, 19 दिसंबर 2006

अंतहीन अभीष्ट

लिखते-लिखते
पहुँच जाते हैं शब्द
अभीष्ट तक।
अंतहीन अभीष्ट......

बहुत अज़ीब बात है,
कुछ मायनों में
बेदुरूस्त शै भी
क़रीने से ज़्यादा
खूबसूरत और लाज़बाब होती है।
हर बार एक ही
आयोजन व प्रयोजन।
थकने की सोचना भी
वफ़ाई की दीवार है।

रोज़ दराज़ों से निकाल-निकाल कर
ख़्वाब,
सजाता रहता हूँ क़ाग़ज़ी फ़र्श पे।
रंगीन सितारों से जलाता रहता हूँ
आशा और प्रतिआशा का दीया।
सुबह का सूरज
और फिर
रात का चाँद।
हर बार यूँही आते भी हैं
और जाते भी।

दराज़ों का खुलना
और बंद होना भी है
जैसे
अंतहीन अभीष्ट।
अंतहीन अभीष्ट......

सोमवार, 11 दिसंबर 2006

तो अच्छा था

ग़र जानता कि ज़िंदगी यहाँ तक लायेगी,
दो घड़ी चैन के जी लेते तो अच्छा था।
यौवन की प्यास नहीं बुझ पायेगी,
दो घुट नीर के पी लेता तो अच्छा था।


सपने में देखा था तुमको,
सरिता के श्यामल जल में।
लगा मुझे सरिता में नहीं
खड़ी हो मेरे ह्रदयतल में।

होठों ने जब छूना चाहा
तेरे रसाक्त अधरों को
वास्तविकता की धरा पायी थी
मैंने दो ही पल में।।


ग़र जानता कि तू नहीं मिल पायेगी
चुन किसी को भी लेता तो अच्छा था।
यौवन की प्यास--------


आकाश और पाताल को एक कर देना है,
अभियंता के ज़रिए देश को कुछ देना है।

आते ही जाना मैंने, केवल रेतों की जमीं
पर अब तो कश्ती को खेना है।।


ग़र जानता कि पढ़ाई मुश्किल पड़ जायेगी,
चलाना हल भी सीख लेता तो अच्छा था।
यौवन की प्यास नहीं बुझ पायेगी,
दो घुट नीर के पी लेता तो अच्छा था।।

लेखन-तिथि- २८ नवम्बर २००३ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६० मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की पंचमी।

मंगलवार, 5 दिसंबर 2006

शांतप्रहरी

(हालाँकि मैं तुकान्त कविता नहीं लिख पाता, फिर भी एक बार कुछ तुकान्त कविताएँ लिखी थी। इस श्रेणी में आनेवाली दूसरी कविता आपकी नज़र कर रहा हूँ। पहली कुछ कारणों से अभी नहीं प्रकाशित कर रहा हूँ। यह कविता मेरे प्रारम्भिक दौर की है, इस लिए वृहद-शब्दकोश के अभाव के कारण तथाकथित कुछ गैरसम्मानित शब्दों का भी समावेश है। सुदंर भाषा प्रेमी मुझे माफ करेंगे!)



हे प्राणेश्वरी, हे कामेश्वरी
मेरे ह्रदय की तुम रागेश्वरी।
इस कांतिमय मन-मंदिर का
मैं शांतप्रहरी, मैं शांतप्रहरी।।

ये किन कर्मों का फल है कि मैंने तुमको पाया है।
ये बहु-प्रतीक्षित सा समय, मेरे जीवन में आया है।।
ये मूरत तेरी, ये सूरत तेरी, कितनी सुन्दर काया है।
चेहरे से नज़रे हटा न सका, ये तेरी कैसी माया है।।

ये गाल तेरी, ये चाल तेरी
नथूनों में अज़ब सी लाली है।
कमर कहूँ या तिनका मैं?
जुल्फ़ घटा से काली है।।

यह पिंडलियों की स्निग्धता
मुझे मतवाला कर देती है।
यह नितम्बों का भारीपन
तन में मस्ती भर देती है।।

गिरि के उतुंग शिखर जैसे
वक्षों की छटा निराली है।
उभारों के बीच का अंतराल
लगता है कुछ खाली-खाली है।।

तेरे रूप-वर्णन में, शब्दों की चिंता होती है।
कुछ कैसे कहूँ मैं? ज़ुबाँ लब्ज़ का साथ खोती है।।

डर लगता है कि इज़हार-ए-ज़ुबाँ न कर पाया।
मेरे रोम-रोम से गर प्रेम-सुधा न झर पाया।।

तो फिर क्या होगा?

ये सोच मन काँप जाता है।
फिर कुछ समझ न आता है।।

दया करो हे हृदयेश्वरी!
अपने गुलाम पर दया करो।
कुछ तो कसमों की हया करो।।

हे मेरी गुणेश्वरी!
इस कांतिमय मन-मंदिर का
मैं शांतप्रहरी, मैं शांतप्रहरी।।

लेखन-तिथि- ३ जनवरी २००३ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०५९ पौष शुक्ल प्रतिपदा।

सोमवार, 27 नवंबर 2006

इंतज़ार

ये उदास ज़िंदगी
बरबस ही उछलने को बेताब है।
शायद कोई आनेवाला है
उसके लिए राहों में फूल बिछाना है
काँटों को हटाना भी है।
कहीं उसके पाँव ज़ख़्मी हुये तो
मेरा दिल ज़ख़्मी नहीं होगा!
जबकि शिशिर आ चुका है
हर "शै' ठण्ड में सिकुड़ी है।
न पत्तों को हिलने का मन करता है
और न ही कोयल को कूकने का।
फिर भी मेरा दिल बल्लियों उछल रहा है।
शायद शीतल पूरवइयाँ
कानों में आकर यह संदेशा दे गई है-
कि कोई आने वाला है
जो अपना है, केवल अपना।
जिसे मैं अपना कह सकता हूँ
जिसके सपने बुन सकता हूँ
जिसके लिए बरसों इंतज़ार किया है।
जी चाहता है वह मधुर बेला
जब इस उपवन में फूल बन वह महके
जिससे पतझड़ में भी बहार आ जायेगी
अभी आ जाये।
उसको एक नज़र देखने को दिल बेताब है।
ना जाने वह कैसा होगा?
शायद मूरत के जैसा
या फूलों से भी सुंदर, या बिल्कुल अलग
जिसकी कोई उपमा ही नहीं।
उसी के इंतज़ार में---


लेखन तिथि- २५ दिसम्बर २००२ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०५९ पौष कृष्ण की षष्ठी।

शुक्रवार, 24 नवंबर 2006

प्रेम-पुष्प-७ (अंतिम रचना)

टूट-टूट कर बिखर गया पूरा वज़ूद
उदासी के पत्थर से।
फट गयी आस्था की नस
खालीपन के नश्तर से।
गिर गयी विश्वास की दीवार
वास्तविकता के धक्के से।
बिक गयी आज फिर से
मुहब्बत की बिरादरी
उन्हीं कागज़ी नोटों से
जिनका इस्तेमाल करते थे वे
उपहारों के लिए
तड़प कर रह गया मछली सा मन
जब फेर ली उसने दरियाई आँखें
बस साँस ले रहा हूँ।

लेकिन कब तक ले पाऊँगा
डॉक्टरी मदद?
क्षणिक हो गया है सबकुछ
दिल का कोना-कोना भर गया है।

नहीं कुछ कर पाया
दर्शन को पढ़कर
शायद अब उतरूँगा मैं
पागलपन के साथ
बता दो जमाने को
अब नहीं होगी शिकायत उनको
मुझसे।
नहीं देखूँगा आशिकों के ख़्वाब
लूँगा मैं भी गंदी हवाओं में साँसें
छोड़ दूँगा हर अच्छाई को
शामिल हो गया हूँ आज से
मैं भी समन्दर में
अब मैं गंगा नहीं रहा
हो गया है ख़ारा सारा का सारा वज़ूद।

ऐ हवा!
कहना उनसे
नहीं है उनसे कोई शिकायत।
मरा हूँ नहीं अभी मैं
वही कहें कैसे जा सकती है
रूह इस ज़िस्म से
वादा तोड़ दे भले ही वे?
खींच कर मार दें
एक तीर प्यार का
वादा रहा मेरा
खून का क़तरा-क़तरा जोड़ेगा
मेरा दिल और
बना देगा एक धारा
और पहुँच जायेगा उनके चरणों तक।


लेखन तिथि- २१ फरवरी २००५

मंगलवार, 14 नवंबर 2006

प्रेम-पुष्प-६

प्रिये,
तुम्हारी ज़ानिब से उठी संवेदनाएँ
शायद नहीं पहुँच पाईं हैं मुझ तक।
शायद मिल गया है कोई
रास्ते का साथी।
घूमा रहा होगा किन्हीं
ठण्डी जगह पर।
लिपटा रहा होगा अपनी
गर्म-लिबासों के ज़ाल में।
कहीं पिघल न जाये तुम्हारे
अरमानों का बिस्तर।
नहीं तो पहुँच न पायेगा
वो मुझ तक।
क्योंकि रास्तों में बर्फीली चट्टाने हैं
जिन्होंने ज़ज़्ब किये हैं
तमाम आशिकों के ख़्वाब।
जब गर्मियों में आते हैं सैलानी
उनकी जिस्मानी गर्मी से पिघलते हैं
ये स्वप्न
और बढ़ा देते हैं
पानी गंगा का।
उस समय दौड़ने लगता है
मेरा पूरा वज़ूद
दरिया की तरफ।
समेट लेता है सारे स्वप्न
और सहेज कर रख लेता है
आँखों में।
जैसे कल की ही बात हो---
संवेदनाएँ चल पड़ी हैं
शायद फिर से॰॰॰॰॰


लेखन-तिथि- १ फरवरी २००५ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६१ माघ मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी।

मंगलवार, 7 नवंबर 2006

प्रेम-पुष्प-५

प्रिये,
सुबह का प्रहर है,
सूर्य की किरणें कक्ष में
इधर-उधर दौड़ने लगी हैं।
तुम अभी-अभी
कोई नया-नया सपना देखकर जगी हो।
शीत का कंधा थामे दूब
ठंडी हवाओं को धिक्कारती झाड़ियाँ
हेम से जूझता अलाव
और आशियाने से उड़ते पक्षी
सब तुम्हारा और
इस नये साल का स्वागत कर रहे हैं।
मुझे भी तुम्हारे जगने की आहट
मिल चुकी है।
यह वर्ष मेरे लिए भी विशेष है
तुम्हारा आगमन
तुम्हारा रूहानी स्पर्श
अपरिभाषित सम्बन्ध
अलिखित दासता
एक विचित्र सा अनुभव!
सबको नववर्ष की बधाईयाँ
दे चुका हूँ मैं।
पर किस तरह से करूँ
तुम्हें नव वर्ष मुबारक?
कुछ समझ नहीं पाता हूँ।
नहीं लिख पाता हूँ
भावनाओं की उथल-पुथल।
जब बात करता हूँ तो
कँपकँपाती है आवाज़
जब चलता हूँ तो
डगमगाते हैं कदम।
शहर से गुजरता हूँ तो
फेंकते हैं लोग पत्थर
बादल को भी
मेरा नाम दिया जाता है।
इतना होने पर भी
नूतन वर्ष में खुशियाँ अपार हैं।
क्या हुआ जो हम-तुम पास नहीं हैं?
दूरी मिटाने का बहाना तो है-
शायद इस बार
नव वर्ष ने रूप लिया है उसका।


लेखन-तिथि- २६ दिसम्बर २००४ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६१ मार्गशीर्ष की पूर्णिमा।

रविवार, 29 अक्टूबर 2006

प्रेम-पुष्प-४

प्रिये,
कल रात एक सपना देखा
देखा तुम उतर रही हो आसमान से
पंखों के आसन पर बैठी हो तुम
हाथ में केवल आशीर्वाद है
शायद वह 'क्रिसमस' का दिन था
मैं दौड़ने लगा था इधर-उधर
कहाँ से लाऊँ फूल
कहाँ से लाऊँ सुगन्ध
कहाँ से लाऊँ स्वागत-मालिका
किस-किस को बुलाऊँ
किसको ना बुलाऊँ?
जी तो करता है
सारे जमाने को जगा दूँ
दिखा दूँ अपने यार को
सिद्ध कर दूँ अपना चुनाव।
-----देखा
मेरे गाँव के बच्चे
कूदने लगे थे तुम्हारे आस-पास
किसी को गुड्डा
किसी को हाथी, किसी को शेर
तो किसी को मिठाई
सब को कुछ ना कुछ मिल रहा था
मैं खड़ा था चुपचाप
मैं केवल देख सकता था
मुझे मालुम था मुझे कुछ
नहीं है मिलने वाला
क्योंकि मैं सपने में था।


लेखन-तिथि- १२ दिसम्बर २००४ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६१ मार्गशीर्ष की अमावस्या।

बुधवार, 11 अक्टूबर 2006

प्रेम-पुष्प-३

प्रिये,
नहीं समझ पाता मैं
रिश्तों का समीकरण
सम्बन्धों की तीव्रता
बस मिलते जाते हैं संयोग
बदलता जाता है सबकुछ
चला जा रहा था
न जाने किस दिशा में
मिल गयी चौराहे पर खड़ी तुम
दिखा दिया मार्ग
चमकने लगे भविष्य-चिन्ह
अब न अंधेरों का साम्राज्य है
और न कोई आवरण
हो गया है सुगम्य प्रत्येक साध्य
संसार एक आवृत्त था
बन गया है व्यास वो भी परिधि से
हो गया है उपजाऊ ह्रदय का सम्पूर्ण क्षेत्र
आवश्यक और अनावश्यक
सबको मिलने लगा है उर्वरक
कुछ पौधौं में फल भी लगे हैं
परन्तु डर लगता है क्योंकि
फल पक के गिरते भी हैं
नीचे की तरफ।


लेखन-तिथि- ३ दिसम्बर २००४ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६१ मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की षष्ठी।

मंगलवार, 26 सितंबर 2006

प्रेम-पुष्प-२

प्रिये,
कभी देखा है तुमने
सूखते हुये घास
और मुरझाते हुये प्रभात को
कितने बेवस नज़र आते हैं वे
समझ लो वही हो गया हूँ आजकल
कहते हैं न- दीये में तेल डालते ही
उसके जलने की तमन्ना और बढ़ जाती है
मेरी भी आरज़ूयें बढ़ने लगी हैं
नहीं सोच पाता क्या होगा अंजाम
कब गिरेंगी दीवारें
कब बनेगा संगमरमरी ताजमहल
कब जायेगी सड़क दिल के इस छोर से
उस छोर तक
मैं तो चल पड़ा हूँ
इस राह में तुम्हारे सहारे
बहुत से चौराहों को लाँघ भी लिया है
न जाने इतना साहस कहाँ से आ गया है
लोग ठीक कहते थे
किसी का साथ हो तो
-------
सागर की सीमा
आकाश की ऊँचाई
और पाताल की गहराई
भी नापी जा सकती है
लड़खड़ाने लगे हैं कदम मेरे
पर इस डगमगाहट में भी मज़ा है
प्रयास करता हूँ न देखूँ स्वप्न
न जाऊँ समय से आगे
पकड़ा रहूँ हाथ वास्तविकता का
पर रहता है कहाँ होश
कहाँ दबते हैं ज़ज्बात
अब तो शाम-ओ-सहर
यादों की दरिया में गोता लगा रहा हूँ
कभी डूबता भी हूँ
और कभी उतरता भी हूँ
शायद तुम तिनकों की मानिन्द
बहती रहती हो, बहती रहती हो
ताकि जब मैं डूबने लगूँ
तो तुम मुझे उबार सको।


लेखन-तिथि- २६ नवम्बर २००४ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६१ कार्तिक मास की पूर्णिमा।

मंगलवार, 19 सितंबर 2006

प्रेम-पुष्प

प्रिये,
असमंजस में डाल दिया है तुमने,
इतना आसान नहीं है
भावनाओं को शब्दों में पिरोना
इतना सरल नहीं है
उड़ते बादलों को पकड़ना।
बस इतना जा लो
मन कहीं नहीं लगता आजकल
कभी तितली, कभी झरने की तरह
इठलाता रहता है इधर-उधर।
बदल गयी है दुनिया मेरी
अब कुछ पुराना नहीं लगता
जीवन को गति मिल गयी है।
कहते हैं ना मंजिल तक पहुँचना
आसान हो जाता है
जब हमराह साथ में हो।
बस इतना जा लो
नहीं रहा कुछ भी मेरा
छोड़ दिया है सबकुछ
लम्हों के आसरे।
शायद सिमट गया है
सम्पूर्ण अस्तित्व तुम्हारे में ही
बढ़ गया है श्वासों का त्वरण
घटने लगी है दर्शन की गहराई।
देखने लगा हूँ सपने
करने लगा हूँ प्रयत्न
कि कर सकूँ साकार।
हटा दिया है प्रत्येक आवरण
खोल दी है दिल की किताब
सालों की मैल थी उनपर
फेरने लगा हूँ उँगलियाँ।
अब नहीं ज़रूरत समझता
मकड़ी के जालों का घर में
क्योंकि मिल गया है कवच
अटूट, अविखण्डित तुम्हारे जैसा।
नहीं डर लगता मर जाने से॰॰॰॰॰
और कुछ जानना है तो
महसूस करो दिल की धड़कनें
पावोगी॰॰॰॰॰॰॰॰॰
कि सबकुछ तुम्हारा है।


लेखन-तिथि- दिनांक ८ नवम्बर २००४ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६१ कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी।

मंगलवार, 12 सितंबर 2006

ना रहे उजाला

हर रात निगलता रहा है
चाँद अँधेरों को,
धरा के कुछ टुकड़े को
आलोकित करता रहा है वो।
भूभाग पर सिमटा उनका
अस्तित्व
कुछ पल के लिए ही सही
सकून देता रहा है
खानाबदोशों को।
पर यह चाँद
कहाँ लेने देता है
संतोष की साँस!
आकाश का सीना चीरते घर
हमेशा से उसकी आँखों में
चुभते रहे हैं।
इंतज़ार में रहता है
उन रातों की
जब रात के पास तनहाई हो।
ताकि कुछ समय के लिए
भूल जाये सबकुछ
ना रहे उजाला
ना दीख पाये भविष्य
ना ही स्मृति-चिन्ह
भूत का।
सो सके अपनी महबूबा के साये में।
महसूस कर सके
वही है इस धरा की अप्सरा,
रोशनी का एक भी क़तरा
ना रहे उनके बीच।
आते-जाते लोगों की नज़रें
ना घूर सके
उनके अस्तित्व को।
सिमट जाये सब कुछ
अँधेरों की तरह।
ताकि जब फिर से चाँद आये
तो वो भी अपना अस्तित्व
लुटा दे रात्रि में।


लेखन-तिथि- दिनांक १२ अगस्त २००४ तद्‌नुसार विक्म संवत् २०६१ श्रावण (द्वि॰) कृष्ण पक्ष की द्वादशी।

बुधवार, 26 जुलाई 2006

फ़ितरत

लगता है नहीं बदल पायेगी
सूरत इस जहाँ की,
बहुत बार कोशिशे हुयी हैं
क्या हुआ?
अब तक,
हर तरफ अंधेरा लिये
उजाला भटक रहा है।
चंद लोगों का अपूर्ण हठ,
अपूर्ण साहस,
अपूर्ण प्रयास,
कुछ नहीं कर पाया है अब तक।
हमेशा से लोग कहते आये हैं
कब तक चलेगा ऐसा?
शायद कहते ही रह जायेंगे।
कौन कहता है कि
दुनिया में गति नहीं है?
ऐसे क्या धीरे चल रहा है?
नहीं ना
तो चलने दो
इसे ऐसे ही।
पर क्या करें?
फ़ितरत नहीं बदलती कुछ लोगों की।

रचनाकाल- १० अगस्त २००४ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६१ श्रावण (द्वि॰)कृष्ण पक्ष की दशमी।

सोमवार, 10 जुलाई 2006

आखिर कब?

निरंतर प्रयत्न करता रहा हूँ मैं
हमेशा हारा हूँ।
पर कहते हैं कि
उम्मीद पर दुनिया कायम है।
लड़ना मेरी फ़ितरत नहीं
पर जूझता रहा उम्रभर।
काश कि जीत पाता
काल को!
दादा कहा करते थे
आदमी कुछ भी कर सकता है।
कहीं ऐसा तो नहीं
वे भी सुनी-सुनायी बातें दुहराते थे?
यदि नहीं
तो क्या मेरी उम्र छोटी है?
फिर कहाँ से लाऊँ और दिन!
अतीत से खींचना पड़ेगा
उनको
पर विज्ञान अभी
कहाँ कर पाया है।
विश्वास है मुझको
हो पायेगा
समय को आगे-पीछे खींचना।
तो भी------
क्या मनुष्य को सन्तुष्टि मिल पायेगी?


लेखन तिथिः ०३ अगस्त २००४ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६१ श्रावण (द्वि॰) कृष्ण पक्ष की तृतीया

शनिवार, 24 जून 2006

अलग पहचान

आज उसकी बातों से
फिर काँपा था मन,
जब से पत्र पढ़ा है
मन कहीं नहीं ठहरा।
क्या जबाब दूँ उसके
सवालों का?
कैसे समझाऊँ उसे
कि उतना ही व्यथित मैं हूँ!
क्या करूँ मैं ऐसा
जिससे वो अतरंगित हो जाये!
कुछ नहीं कर सकता मैं
ऐसा लगता है
कि बस
दरिया के किनारे खड़ा होकर
लहरों का हलचल देख सकता हूँ।
बस देख रहा हूँ कि
वे अब द्वीप पर चमकते पत्थरों
को अपने रंग में रंग रही हैं।
देख सकता हूँ बस इतना कि
रेतों पर पड़ी कश्तियों को भी
अपने में समाहित कर रही हैं।
लेकिन मैं कैसे कह सकता हूँ
कि मैं यह सब देख रहा हूँ?
अरे! उसे समझना चाहिए
पानी सर के ऊपर आ चुका है।
बस मैं निकलने के लिए
हाथ पैर मार रहा हूँ।
निकल नहीं पाऊँगा
इसलिए
सुनी-सुनायी बातें बताकर,
सुनाकर,
अपने में सिमटकर,
भय को भगा रहा हूँ।
कैसे बताऊँ उसे
मैं भी तो डर गया हूँ,
या यह कहूँ कि मर गया हूँ।
अरे, इतिहास तो मैंने भी पढ़ा था
हाँ, कुछ वैसा ही मैंने भी अनुभव किया था।
अपने से ही मैंने भी पूछा था
"क्या मैं नया भारत देख पाऊँगा?"
तब से बस इंतज़ार ही कर रहा हूँ।
यह सत्य है कि मैं खुद
कुछ नहीं कर रहा हूँ।
बस सोचे जा रहा हूँ
कि सबसे अलग एक पहचान बनाऊँगा।
बना भी लिया है
तभी तो दुनिया कहती है
न जाने कब से
'इसने' अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं किया
और कहता है
मरते दम तक शायद
यह उससे नहीं हो पायेगा।

(अपने प्रिय मित्र मनीष 'वंदेमातरम्' का पत्र पाने के बाद)

लेखन तिथिः १४ फरवरी २००४ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६० फाल्गुन कृष्ण पक्ष की नवमी।

मंगलवार, 13 जून 2006

रति और काम

कब से लड़ रहे थे वे दोनों
कोई किसी से कम नहीं था
जो लोग घरों से बाहर थे
उनका झगड़ना देख भी पा रहे थे।
वैसे संकेत सुलभ थे
पर व्यक्ति का स्वार्थ
कहाँ देख पाता है सबकुछ!
रति और काम को इनसे क्या मतलब
अरे! ये हों ना हों
उनके कार्य का प्रयोजन नहीं खत्म होता
झगड़ा करते हैं वे दोनों
और
अनुकूल बनते हैं उनके लिये
झगड़ते हैं तो बदरी भरा आकाश आनन्द देता है
और जब इनका सर्वश्व नष्ट होता है
तो वर्षा ऋतु आती है।
कामः "कितना अच्छा है ना देवि!
ईश्वर हमारे कार्य से प्रसन्न होकर
शंखनाद के उपरान्त
मृदुजल को स्वाहा कर रहे हैं"
रतिः "हाँ स्मर! अब इसी के लिये
परमेश्वर ने भेजा है, तो उन्हें करना तो पड़ेगा ही"
कामः "चलो,पुनरायोजन करें, देखो!
नभ कितना स्वच्छ हो चला है,
सम्भवतः हमारा स्वागत करने आया है चाँद"
रतिः " हाँ मयन, देखो ना हमें देखकर तारे किस तरह
मुस्कुरा रहे हैं"
कामः "कल देखा था तुमने?
सुबह-सुबह
अरूणदेव हम में नयी स्फूर्ति जगाने के लिये
समय से पहले निकल आये थे"
रतिः "हाँ, सब ठीक रहा तो
हमारे वंशज इस जगत पर राज करेंगे"
कामः " हाँ, विलम्ब ना करो तो अच्छा है
अतिशीघ्र प्रस्तुत हो जाओ"
एक नव अनुकूल आयोजन हो चला है
धीमी-धीमी वर्षा ऋतु की फुहार
ऊर्जाहीन हो चले हैं दोनों
मेघों के पास भी कुछ नहीं बचा लुटाने को।


लेखन तिथिः १८ अगस्त २००४

बुधवार, 7 जून 2006

सिगरेट

सिगरेट!
कुंठे की चिमनी
जलती-बुझती चिंगारी
निगलती जाती है सबकुछ
बड़वानल के सादृश्य
उसके पास भी अब बहुत कुछ
नहीं बचा
कितने दिन हुये
इस भस्म से दोस्ती के!
क्या साथ देती है
अपने में समाहित करके!
जब से मिली है
रूतबा बन गया है
समाज में
लोगों की दया
मुफ़त में मिलती है
वो समझता था सबमें स्वार्थ है
पर वो गलत था वो
क्या कोई
सिगरेट को स्वार्थी कह सकता है!


लेखन तिथिः ६ जून २००४

शनिवार, 6 मई 2006

जीने नहीं देते वो

कल रात
फिर से आ घिरा था
उनके बीच
आँख मिचौली खेल रहे थे
वे
अचानक कँपकँपा गया था मन
सोचा
प्रकाश कर दूँ कमरे में
अभी उठकर पकड़ लूँगा उनको
पर वैसे ही पड़ा रहा
क्योंकि जानता था
प्रकाश की एक किरण भी
मेरी परेशानी बढ़ायेगी
भूत में
ऐसे कई प्रयास कर चुका था मैं
यह जानते हुये कि
प्रकाश होते ही
वे मेरे ही रूह में बैठ जायेंगे
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पता नहीं कब चैन लेने देंगे
ये अंधेरे!
शायद----- शायद
तब
जब अंतर एवम् बाहरदोनों प्रकाशित होगा
पर---- कब
शायद अंतिम श्वास की घड़ी तक
यह सम्भव नहीं हो सकेगा।

लेखन-तिथिः ३० मई २००४